पहली बार अथर्ववेद से मुलाक़ात हुई तो आश्चर्य के साथ अपनापन भी महसूस हुआ ! लगा, यह सिर्फ़ यज्ञों का गंभीर ग्रन्थ नहीं, घर आँगन की बोली में बोलते मंत्रों का सजीव संग्रह है ! क्या यह अनुपम नहीं कि वैदिक वाणी रसोई की आग, चौखट के तोरण और शिशु की नींद तक को अर्थ देती है ?
अथर्ववेद को कई जगह ‘ अथर्वाङ्गिरस ‘ कहा गया है ! ‘ अथर्वन् ‘ औषध, शान्ति और सुरक्षा से जोड़ते हैं, और ‘ अंगिरस ‘ ऋषि परम्परा की दूसरी धारा को ! कई आचार्यों ने इसे ‘ ब्रह्मवेद ‘ भी माना, क्योंकि यज्ञ में ‘ ब्रह्मा ‘ पुरोहित की निगरानी और समन्वय का आधार यही संहिता समझी गई !
विद्वान इसे बाकी वेदों के बाद की दिशा में रखते हैं ! सामान्य संकेत बारह सौ – एक हज़ार ( 1200 – 1000 ) ईसा पूर्व के आसपास का मिलता है ! भाषा जगह जगह सरल है और कहीं कहीं गद्य भी दिखता है बिलकुल सादा, बिना घुमाव के !
अथर्ववेद में बीस ( 20 ) काण्ड, लगभग सात सौ तीस ( 730 ) सूक्त और करीब छह हज़ार ( 6000 ) मन्त्र बताए जाते हैं ! शाखाओं में शौनक और पैप्पलाद के नाम प्रमुख हैं ; आज सामान्य पढ़ाई में शौनक संहिता ज़्यादा दिखती है ! कुछ सूक्त ऋग्वेद से बदले बदले रूप में भी मिलते हैं जैसे पुराना राग नई लय में !
यह वेद घर के छोटे बड़े कामों से लेकर जीवन के बड़े संस्कारों तक साथ चलता है ! विवाह, गृह शान्ति, संतान कामना और समृद्धि इन सबके लिए यहाँ सहज मंत्र विधियाँ हैं ! रोग निवारण, दीर्घायु और संकट प्रतिरोध की राह भी यहीं सूझती है !
औषधि सूक्त पढ़ते हुए जड़ी बूटी किसी दवा से ज़्यादा, एक भरोसेमंद साथी सी लगती है ! कभी ऐसा भी लगा कि जैसे वैद कोई काढ़ा पकाते हुए धीरे से मंत्र भी फूँक दे, और डर आधा वहीं पिघल जाए ! आयुर्वेद की ओर कई प्रारम्भिक इशारे यहीं बुने हुए दिखते हैं प्राण, श्वास और देह के साथ नरम सा संवाद !
विवाह और दाम्पत्य से जुड़े सूक्तों में सिर्फ़ रीति नहीं साथ निभाने का सहज वचन है ! एक जगह पढ़ते पढ़ते मन में आया घर की शान्ति कोई बड़ा अनुष्ठान नहीं, रोज़ की छोटी संवेदनाएँ हैं : समय पर बोला गया नम्र शब्द, थमे हुए क्रोध का विराम, और आशीर्वाद सा एक स्पर्श ! ऐसे पलों में लगता है, यह वेद सचमुच घर के बीचोंबीच बैठा है !
कई लोग इसे ‘ जादुई उपायों ‘ वाला ग्रन्थ कह देते हैं ! सच तो यह है कि यहाँ शान्ति उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी रक्षा ! अँधेरे नाम लेकर, फिर उजाले से उनका सामना करना अथर्ववेद यही करता है ! डर को पहचानता है फिर धीरे धीरे उसे खोलता है ताकि मन हल्का हो सके !
व्यवहार के बीच बीच में दर्शन की सौम्य आहट मिलती है ! प्राण, आत्मा और ऋत जैसे बीज शब्द सूक्तों में चमकते हैं ! कहीं लगता है, मंत्र शब्द नहीं, भीतर उतरती हुई शान्ति हैं !
यज्ञ व्यवस्था में ‘ ब्रह्मा ‘ पुरोहित का काम चुपचाप देखना, गलती पकड़ना, और सबको साथ रखना अक्सर अथर्ववेद से जोड़ा गया ! यह भूमिका बताती है कि यह वेद समन्वय का भी सहारा है ! जैसे कोई शांत संगठक जो सारे सुरों को एक तान में साध दे !
पुराने ग्रन्थों में कई शाखाओं का ज़िक्र आता है पर आज दो परम्पराएँ मुख्य रूप से मिलती हैं ! भाषा एक जगह अत्यन्त सरल, दूसरी जगह थोड़ी उत्तरवर्ती सी लगती है ! किसी एक सांचे में ढला हुआ नहीं, इसीलिए यह जीवित लगता है !
कई मन्त्र ऋग्वेद से भी आते हैं पर अर्थ यहाँ ज़्यादा जन जीवन की ओर मुड़ जाता है ! यह बताता है कि वेद अलग अलग टापू नहीं बल्कि आपस में बातें करती नदियाँ हैं ! देव स्तुति का वैभव और लोक कल्याण की सरलता साथ चलती है !
काण्ड चौदह ( 14 ) में विवाह के सौम्य मंत्र हैं बोल नर्म हैं, भाव गहरे ! काण्ड अठारह ( 18 ) में अंत्येष्टि पर गंभीर परन्तु स्नेहिल दृष्टि है मृत्यु सामने हो, तब भी जीवन की गरिमा बनी रहे ! काण्ड पंद्रह ( 15 ) का व्रात्य प्रशस्ति अलग सी चमक रखता है जैसे सीमा पर खड़े समूह को सम्मान देकर भीतर बुलाया जा रहा
हो !
काण्ड चौदह ( 14 ) पढ़ते समय, मानो किसी घर में शहनाई की हल्की सी धुन सुनाई दे ! काण्ड अठारह ( 18 ) पर आते आते आवाज़ धीमी हुई, पर कोमल बनी रही जैसे कोई बुज़ुर्ग धीमे धीमे समझा रहा हो कि विदाई भी प्रेम का ही रूप है ! इस उतार चढ़ाव में वही ‘ जीवन ‘ दिखता है बिलकुल सादा, बिलकुल
सच !
पृथ्वी सूक्त के पन्ने पर ठहरते ही बारिश के बाद की मिट्टी की खुशबू याद आ गई ! भूमि को ‘ माता ‘ कहना यहाँ अलंकार नहीं, रिश्ते का स्वीकार है ! आज के पर्यावरण चिंतन में यह सूक्त दीये की लौ सा है भीतर भी, बाहर भी प्रकाश देता हुआ !
समाज में भय और अनिश्चितता हमेशा रहे हैं ! अथर्ववेद इनसे नज़र नहीं चुराता उनका नाम लेता है, और फिर शान्ति से उन्हें हल्का करता है ! शब्दों में विश्वास हो, तो आधा बोझ शब्द ही उतार देते हैं !
दाम्पत्य सूक्तों में आपसी सम्मान और बराबरी की सहज भाषा मिलती है ! परिवार यहाँ व्यवस्था भर नहीं, भाव का घर है ! कई जगह स्त्रियों की भूमिका का उन्नत और उजला चित्र दिखता है सिर्फ़ रस्मों में नहीं, निर्णय और मर्यादा में भी !
कुछ सूक्त शासन और मर्यादा पर रोशनी डालते हैं ! शान्ति को निजी इच्छा नहीं, समाज और राज्य की जिम्मेदारी भी माना गया ! बिना शोर के, पर मज़बूती से यही संतुलन इसकी पहचान बनता है !
नक्षत्र, ऋतु, समय इनके संकेत सरल और सटीक मिलते हैं ! प्रकृति को देवत्व से देखना पूजा भर नहीं जीवन रीति भी है ! जल, वायु और वनस्पति के प्रति कृतज्ञता की भाषा मन को नम्र बनाती है !
यह सिर्फ़ ‘ धार्मिक ग्रन्थ ‘ का संसार नहीं ! यहाँ टोने टोटके के रूपक मिलते हैं पर उनके पीछे लोक आश्वासन की गर्माहट है ! शत्रु निवारण के साथ पड़ोस के सद्भाव का विवेक भी है ! यही मिश्रण इसे मानवीय बनाता है कभी कठोर, कभी कोमल, पर हमेशा जीवित !
औषधि सूक्त पर ठहरकर लगा जैसे दादी की रसोई में तुलसी, अदरक और गुड़ की महक उठ रही हो ! शब्द बदल गए हैं, पर सान्त्वना वही है ! यह पहचानना सुखद है कि ज्ञान किताबों में भी रहता है और रसोई की भाप में भी !
आज के समय में मानसिक संतुलन, सार्वजनिक स्वास्थ्य और समुदाय की शान्ति इन सब पर यह वेद बारीक रोशनी डालता है ! यहाँ प्रयोग तालिका नहीं, जीवन व्यवहार की समझ है ! सह अस्तित्व, करुणा और संतुलन यही इसकी स्थायी सीख है !
पाण्डुलिपियों का संरक्षण, उच्चारण की मौखिक परम्परा, और आचार्यों का श्रम इन सबने इसे सँभाला ! शौनक और पैप्पलाद का नाम आज भी शास्त्रीय पढ़ाई में गूँजता है ! नए सम्पादन और सरल व्याख्याएँ इसे नए पाठकों के निकट ला रही हैं !
क्या सचमुच प्राचीन मन्त्र आज भी तनाव पर मरहम बन सकते हैं ? जवाब अक्सर अनुभव में मिलता है शान्ति की भाषा पुरानी नहीं होती ! करुणा समय से बाहर खड़ी रहती है ; वही मंत्रों की असली शक्ति है !
यहाँ रोग सिर्फ़ देह का नहीं, समाज और संबंधों का भी है ! इसलिए इलाज भी कई स्तरों पर है औषधि, मंत्र, व्यवहार और सद्भाव, सब साथ ! जैसे वैद्य कहे काढ़ा भी लो, कटु शब्द भी छोड़ दो ; दोनों मिलकर ही आरोग्य देंगे !
कभी कभी पढ़ते पढ़ते हाथ अपने आप धीमे हो जाते हैं ! लगता है किसी बड़े वृक्ष की जड़ों को छू लिया गया हो ! यही वह क्षण है जहाँ ग्रन्थ इतिहास से आगे बढ़कर वर्तमान बन जाता है !
यह संहिता किसी परिपूर्ण साँचे में नहीं ढली ! कहीं गद्य, कहीं पद्य ; कहीं छोटा सा सूत्र, कहीं लहराती हुई पंक्तियाँ ! यही असमानता इसे प्राकृतिक बनाती है जंगल की तरह, जहाँ हर पेड़ अपने ढंग से बढ़ता है !
अथर्ववेद आखिर में एक नरम भरोसा देता है कि ज्ञान देवालय में भी है और आँगन में भी ! औषधि वन में भी है और शब्दों में भी ! और शान्ति बाहर के तप से भी आती है, भीतर की करुणा से भी ! जब यह बात बैठती है, तब समझ आता है यह ग्रन्थ इतिहास ही नहीं, आज की धड़कन भी है !