क्या विशेष है इस गीता में, गीता में अगर कुछ विशेष हैं तो वह है श्री कृष्ण, हम सब निमित्त हैं, साधन है लेकिन यह मेरा खास प्रयास है कि आज के जमाने में यह ग्रंथ हमें रास्ता दिखाएं, आसानी से गीता को हम सब समझ पाए और अपने रोजमर्रा के जीवन में इसका उपयोग कर पाए।
वैसे गीता के बारे में बहुत कुछ कहा गया है, सुना गया है शायद ही कोई ऐसा धर्म ग्रंथ होगा जिस पर इतना लिखा गया होगा !
ऐसा क्या खास है गीता में कि समय-समय पर यह और भी आवश्यक मार्गदर्शक भी होती जा रही है। एकदम साधारण भाषा में कहें तो भगवत गीता एक उत्तर है। गीता उत्तर है दुनिया के हर प्रश्न का जीवन से जुड़ा ऐसा कोई प्रश्न नहीं जिसका कि उत्तर श्री कृष्ण भगवत गीता में नहीं देते हैं !
हमारे मन मस्तिष्क में कोई शंका, परेशानी, चिंता किसी भी तरह का आवेग, किसी भी तरह की दुविधा हो। दुनिया के हर धर्म संकट, हर डायलमा का उत्तर है गीता !
भगवतगीता में 18 अध्याय हैं और हर अध्याय में वेदों और उपनिषदों का सार है। अरे भाई इसे आप वेद या उपनिषद समझकर डरिएगा मत। यह मत सोचिए की यह हमारी और आपकी समझ से दूर है इसके हर अध्याय, हर श्लोक में आप अपने आप को अर्जुन समझिए क्योंकि अर्जुन की हर शंका, उसका हर डर, हर समस्या वैसे देखा जाए तो हमारी ही परेशानी है और हर परेशानी का हल बता रहे हैं श्री कृष्ण !
कृष्ण को सिर्फ अर्जुन का सारथी मत मानिएगा उन्हें अपने जीवन का सारथी भी मानिएगा। उनके कहे अनुसार अगर हम और आप चलेंगे तो मैं दावे के साथ कहता हूं कि हम सारी परेशानियों को आसानी से पार कर जाएंगे। ज्ञान या धर्म या ग्रंथ की बड़ी-बड़ी बातें मेरे साथ नहीं होगी दोस्तों। यहां पर जीवन की कुछ प्रैक्टिकल सच्चाइयों, प्रैक्टिकल प्रॉब्लम्स की बातें की जाएगी तो आईए मैं शैलेंद्र भारती आपको ले चलता हूं भगवतगीता के 18 अध्यायों के सफर पर !
पहला अध्याय है अर्जुनविषाद योग !
यहां शुरुआत होती है धृतराष्ट्र के सवालों से। वह जानना चाहते हैं कि युद्ध में क्या हो रहा है उनका पुत्र दुर्योधन और उनकी सेना क्या कर रही हैं और साथ ही में पांडु पुत्रों की सेना क्या कर रही है उसके बाद दोनों सेनाओं के शूरवीरों का वर्णन और उसके बाद आता है अर्जुन का विषाद मतलब कि उनका दुख, उनकी समस्या, उनका धर्मसंकट, तो आइए सुनते हैं अर्जुनविषाद योग !
धृतराष्ट्र संजय से पूछते हैं कि धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध करने के लिए एकत्र हुए मेरे और पांडू के पुत्र क्या कर रहे हैं। धृतराष्ट्र जानना चाहते हैं कि युद्ध स्थल पर आखिर हो क्या रहा है। धृतराष्ट्र अंधे थे, देख नहीं सकते थे लेकिन आंखों से अंधे थे मन ,मस्तिष्क से नहीं। उन्हें पता था कि वह धर्म के साथ नहीं है क्योंकि धर्म वहां होता है जहां श्री कृष्ण थे। अपने पुत्र मोह में उन्होंने शांति की जगह युद्ध को चुना था लेकिन वो जानते थे कि इस युद्ध को जीतना आसान नहीं होगा। अपने जीवन में जब हम कुछ गलत करते हैं तो हम भी समझ रहे होते हैं दोस्तों कि हमारे किए का नतीजा शायद अच्छा ना हो और ऐसा ही धृतराष्ट्र के साथ भी हुआ वह भी इसी डर, इसी आशंका में दिखते हैं ।
धृतराष्ट्र संजय से पूछते हैं कि धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध करने के लिए एकत्र हुए मेरे और पांडू के पुत्र क्या कर रहे हैं। धृतराष्ट्र जानना चाहते हैं कि युद्ध स्थल पर आखिर हो क्या रहा है। धृतराष्ट्र अंधे थे, देख नहीं सकते थे लेकिन आंखों से अंधे थे मन ,मस्तिष्क से नहीं। उन्हें पता था कि वह धर्म के साथ नहीं है क्योंकि धर्म वहां होता है जहां श्री कृष्ण थे। अपने पुत्र मोह में उन्होंने शांति की जगह युद्ध को चुना था लेकिन वो जानते थे कि इस युद्ध को जीतना आसान नहीं होगा। अपने जीवन में जब हम कुछ गलत करते हैं तो हम भी समझ रहे होते हैं दोस्तों कि हमारे किए का नतीजा शायद अच्छा ना हो और ऐसा ही धृतराष्ट्र के साथ भी हुआ वह भी इसी डर, इसी आशंका में दिखते हैं ।
श्रीमद् भगवत गीता प्रथम अध्याय 2 श्लोक
.
संजय आंखों देखा हाल बताते हुए उत्तर देते हैं हे राजन! दुर्योधन पांडवों के सेना के व्यूह को देख रहे हैं और यह बात गुरु द्रोणाचार्य को जाकर के कहते हैं। संजय को दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई थी वो युद्ध से दूर होते हुए भी खुद को देख सकते थे वो जो देख रहे थे वही बता रहे थे इसमें वो अपनी तरफ से कुछ भी नहीं कह रहे थे सिर्फ आंखों देखा हाल बता रहे थे युद्ध का। यानी जैसे हम लोग रनिंग कमेंट्री सुनते हैं बस इसी तरह समझ लीजिए। यह उन्हीं की दिव्य दृष्टि यानी डिवाइन विजन का कमाल था कि हमें गीत सुनने को मिली !
……..।। 3 ।।
हे आचार्य! द्रुपद पुत्र धृष्टदयूमन आपका ही बुद्धिमान शिष्य हैं पांडू पुत्रों की यह बड़ी भारी सेना की व्यूह आकर रचना धृष्टदयूमन ने ही की हैं, विवाह जाकर रचना का मतलब हुआ किसी विशेष तरीके से सुना के योद्धा खड़े हैं एक ऐसा व्यूह जिससे उसे सेना के बीच घुसना असंभव हो और अगर कोई उसमें घुसने में सफल भी हो जाता है तो कभी बाहर ना आ सके। दोस्तों जब शत्रु या समस्या को हम देखते हैं तो वह हमें बहुत बड़ी और विकराल दिखाई देती हैं और मन में यह डर भी रहता है की कुछ कर गुजर के हम इसमें घुस भी गए तो क्या होगा, क्या हम बाहर आ पाएंगे, क्या हम जीत पाएंगे ऐसे ही सोच से दुर्योधन भी गुजर रहा है।
……..।। 4 ।।
……..।। 5 ।।
……..।। 6 ।।
इन तीन श्लोक में दुर्योधन पांडूपुत्रों के सेना के महान योद्धाओं का नाम ले रहा है, जब भी युद्ध होता है तो आप अपने सामने खड़ी सेना उस सेना के योद्धाओं को जांचते और परखते हैं वैसे ही दुर्योधन भी कर रहा है। दुर्योधन द्रोणाचार्य से कहता है कि बड़े-बड़े धनुषों वाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सत्यकी और विराट तथा महारथी, राजा द्रुपद, धृष्टकेतु और श्चिकितान तथा बलवान काशीराज पुरोजित कुंतीभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैव्य पराक्रमी युद्दामन्यु तथा बलवान उत्तमौजा, सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु एवं द्रोपदी के पांचो पुत्र यह सभी महारथी हैं इससे हमें यह पता चलता है कि चाहे शत्रु हो या शत्रु के जैसी समस्या, उसके बारे में सब कुछ जानना चाहिए दोस्तों। समस्या के हर पहलू से हमें वाकिफ होना चाहिए, समस्या के हर पार्ट उसके अंग के बारे में मालूम होना चाहिए जैसा कि दुर्योधन भी कर रहे हैं।
……..।। 7 ।।
दुर्योधन आगे कहता है कि हे ब्राह्मणश्रेष्ठ पांडवों की सेना के योद्धाओं को तो आपने देख लिया अब अपने पक्ष में भी प्रधान हैं उनको भी तो आप समझ लीजिए, द्रोणाचार्य की जानकारी के लिए शत्रु की सेना के बाद दुर्योधन अपनी सेना के जो-जो सेनापति हैं उनके बारे में बतलाता है समस्या के बारे में सब कुछ जान लेने के बाद बारी आती है अपने पक्ष में सोचने की, यह जानना होता है दोस्तों कि आपके पास क्या-क्या स्ट्रांग पॉइंट्स है आप किन बातों में मजबूत हैं जिससे आप उसे समस्या पर विजय पा पाएंगे जैसे आपने समस्या के हर पहलू के बारे में सोचा इस तरह आपको स्वयं का भी आकलन कर लेना चाहिए।
………।। 8 ।।
सबसे पहले आप द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्राम विजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा के बारे में जानिए दोस्तों, जिस तरह से हम आज के जमाने में रिस्क असिस्टमेंट करते हैं वैसे दुर्योधन भी अपने शत्रु की सेना को देखते हुए दोनों सेनाओं के योद्धा की बातें करते हुए आगे होने वाले युद्ध के लिए तैयार हो रहे हैं। चुनौती को हर तरह से समझ कर ही उस पर विजय प्राप्त की जा सकती है चुनौती को इतने अच्छे से जान लेना चाहिए कि जब हम उससे लड़ने जाएं तो कुछ नया न लगे कोई सरप्राइज ना आए। युद्ध हो या चुनौती सरप्राइज आपको हरा सकता है।
……।। 9 ।।
दुर्योधन गर्व के साथ कहता है कि मेरे लिए जीवन की आशा त्याग देने वालों की कमी नहीं , इतना ही नहीं यह शूरवीर अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित है और सब के सब युद्ध में चतुर है। दुर्योधन के लिए एक इशारे पर उसकी सेना के शूरवीर लड़ने मरने को तैयार हैं उन्हीं को देखकर दुर्योधन खुश हो रहा है। दुर्योधन के साथ युद्ध में लड़ने के लिए शूरवीर थे जो उसके लिए मरने को तैयार हैं।
आप जब अपने जीवन की चुनौती से लड़ते हैं तो आपके साथ कौन होता है, आपके साथ होता है आपका हुनर, आपकी हिम्मत, आपकी मेहनत आपके संगी ,आपके अपने रिश्तेदार। जैसे शूरवीर दुर्योधन के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं वैसे यह आपके साथी भी आपके लिए कुछ भी कर सकते हैं।
……..।। 10 ।।
दुर्योधन आगे कहता है कि भीष्म पितामह द्वारा रक्षित उनकी सेना सब प्रकार से अजेय है और वहीं शत्रु की सेना भीम द्वारा रक्षित हैं। दुर्योधन कहना चाहते हैं कि भीम की सेना को वो आसानी से जीत सकते हैं दुर्योधन यहां घमंड दिखा रहा है जो आपको बिल्कुल भी नहीं करना है दोस्तों! कभी नहीं, क्योंकि अगर दुर्योधन जानता की दूसरी सेना को हरा देगा तो फिर युद्ध ही क्यों करता। युद्ध को जीतने के लिए दूसरे को हराना पड़ता है अगर चुनौती या समस्या को देख कर हमें लगता है कि हम जीत जाएंगे, विश्वास या आत्मविश्वास तो हो सकता है लेकिन घमंड नहीं क्योंकि अगर घमंड हुआ तो आपके हारने की शुरुआत है।
…….।। 11 ।।
दोनों सेनाओं के इस तरह के वर्णन से दुर्योधन अपनी इस बात पर पहुंचना चाहता था और वह ये की हर किसी को अपने-अपने मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए निसंदेह भीष्म पितामह की रक्षा करनी है कहने का मतलब आप होने वाले युद्ध में सबसे अधिक उसकी रक्षा करते हैं जो आपके लिए युद्ध के लिए सबसे अधिक आवश्यक हो जैसे कि दुर्योधन और उसकी सेना के लिए भीष्म पितामह है भीष्म पितामह की हारने का मतलब था युद्ध हार जाना और उनके बचे रहने का मतलब आप युद्ध हार नहीं सकते ,अपनी सबसे बहुमूल्य चीज को तब तक बचा के रखना चाहिए जब तक कि आप युद्ध पर विजय प्राप्त ना कर ले ।
……….।। 12 ।।
शंख उद्घोषणा होती है होने वाले युद्ध की,कौरवों में सबसे वृद्ध सबसे बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उच्च स्वरों में सिंह की दहाड़ के समान गरज कर ऐसा शंख बजाया की दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न हो गया । युद्ध जीतने के लिए अपने पक्ष में माहौल बनाना पड़ता है खुद को दिलासा भी देना पड़ता है कि हम युद्ध जीतने में सक्षम हैं ऐसा ही पितामह भीष्म ने किया और हमें भी करना चाहिए ।
……..।। 13 ।।
युद्ध भयंकर होते हैं और यह इतिहास में आज तक का सबसे भयंकर युद्ध का आरंभ था। भीष्म पितामह के शंख के पश्चात नगाड़े तथा ढोल, मृदंग और नरसिंगे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे इन बाजों का नाद संगीतमय नहीं बहुत ही डरावना था युद्ध मनोरंजक नहीं होते दोस्तों इसलिए अगर युद्ध का फैसला ले लिया जाता है तो उसमें फिर जो भी स्वीकार हो कर लेना पड़ता है हर युद्ध हर चुनौती अपने किस्म के हालात लेकर आती हैं उन्हें हालात के आधार पर ही हमें तैयारीया करनी पड़ती हैं ।
…………।। 14 ।।
अब बारी थी पांडुपुत्रों की, सेना के शंखनाद की ।
सफेद घोड़े से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्री कृष्ण और अर्जुन ने भी अपने-अपने अलौकिक शंख बजाएं । युद्ध में जब तैयारी होती है ना दोनों तरफ से होती हैं हर पक्ष अपनी विजय की आशा में खुद को,अपनी सेना को भरोसा देता है । आज के समय में हम खुद के लिए शंख बजाने की उपमा के बारे में सोचें तो यह हो सकता है कि हम कुछ भी ऐसा कर सकते हैं जो हमें मोटिवेट या प्रोत्साहित करें ।
……….।। 15 ।।
श्री कृष्ण के शंख का नाम है – पांचजन्य , अर्जुन के देवदत्त और भयानक कर्म वाले, भयानक भीमसेन ने अपना पोंडर नमक महाशंख बजाया । अपने जीवन में इसी तरह से हम भी अपने युद्ध, अपनी चुनौती में आगे बढ़ने के लिए अपनी मोटिवेशन चुन सकते हैं कुछ लोगों के लिए संगीत ऐसा काम करता है कुछ के लिए भगवान को याद करना या कुछ के लिए माता-पिता का आशीर्वाद । अपने शंख आप स्वयं चुनिए और युद्ध के लिए तैयार हो जाइए ।
………।। 16 ।।
पांडवों में सबसे बड़े भाई कुंतीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनंतविजय नाम का और नकुल तथा सहदेव ने सुधोषमणिपुष्पक नाम के शंख बजाएं।
दोस्तों मोटिवेशन तो सबको चाहिए । आपने देखा, सभी लोग अपने-अपने तरीके से युद्ध जीतने के लिए अपना-अपना प्रयास करते हैं ।
……………।। 17 ।।
……………।। 18 ।।
हर शंख की अलग ध्वनि, अपना एक अलग अस्तित्व युद्ध का हर योद्धा अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहा है। श्रेष्ठ धनुष वालें काशीराज और महारथी शिखंडी एवं दृष्टद्युमन तथा राजा विराट और अजेय सत्यकी , राजा द्रुपद एवं द्रोपदी के पांचो पुत्र और बड़ी भुजा वाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु । संजय धृतराष्ट्र को बताते हैं कि हे राजन! सब ने अपनी और से अलग अलग शंख बजाएं। दोस्तों महाभारत का युद्ध ऐसा था की जिसमें हर बड़े से बड़े योद्धा भाग ले रहा था ऐसे विरलय मौके को कोई कैसे छोड़ सकता था । हमारे लिए ध्यान देने की बात यह है कि सच्चा योद्धा तो वही है जो युद्ध के लिए तत्पर रहे युद्ध को आप जीवन माने चुनौती माने जो भी माने लेकिन उसके लिए हमेशा तैयार रहे इसलिए हर योद्धा शंख बजा बजा के सबको अपने होने का आभास करवा रहा है।
…………।। 19 ।।
युद्ध से पहले जैसे आप शत्रु को अपनी शक्ति दिखाके डरने का प्रयास करते हैं वैसे भी यहां भी हो रहा है संजय कहते हैं कि इस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गूंजाते हुए धृतराष्ट्राओं के अर्थात आपके पक्ष वालों के हृदय विदिर्ण कर दिए जब आप हुंकार भरते हैं War cry देते हैं तो बड़े से बड़े शत्रु को भी डर लगता है यह हुंकार ऐसी होनी चाहिए कि शत्रु सौ से कि वह किस से युद्ध करने जा रहा है आप चाहे इंटरव्यू के लिए जाए या किसी से मिलने जाए आपका हुनर, आपकी प्रतिभा ऐसी होनी चाहिए कि सामने वाला आपके कौशल से प्रभावित हो जाए ।
……………।। 20 ।।
अर्जुन अपने मोर्चा बांधकर डटे हुए धृतराष्ट्र संबंधियों को देखते हैं फिर अपना धनुष उठाकर ऋषिकेश श्री कृष्ण से कहते हैं कि हे अच्युत, मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच खड़ा कीजिए । अच्युत अर्थात अटल जो अपने स्थान से हटता नहीं जिसका नाश नहीं हो सकता श्री कृष्ण का एक नाम अच्युत भी था और अर्जुन अपने सारथी से दोनों सेनाओं के बीच में जाने को कह रहे हैं अर्जुन ने श्री कृष्ण को इसलिए सुना था कि वह जानता था जब साक्षात् भगवान उसके साथ हैं तो मतलब धर्म उसके साथ है जिसके साथ धर्म होता है वह कभी हार नहीं सकता ।
………..।। 21 ।।
आज के जीवन का यह सबसे बड़ा ज्ञान है दोस्तों। युद्ध कोई भी हो सकता है किसी भी प्रकार का पर्सनल या बिजनेस से जुड़ा हुआ लेकिन दोनों पक्षों के बीच में जाकर आप युद्ध की सही अवस्था के बारे में जान सकते हैं। अर्जुन श्री कृष्ण से कहते हैं की हे कृष्ण जब तक मैं युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख न लू कि इस युद्ध रूपी व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है तब तक इस रथ को यही खड़ा रखिए । हमें भी दोस्तों ! जी हां, हमें भी इसी तरह अपनी समस्या के बीच में खड़े हो उसे भली-भांति देखना और परखना चाहिए और तभी निर्णय लेना चाहिए।
*………………।। 22 ।।*
अर्जुन दुर्योधन को दुर्बुद्धि बता रहे हैं क्योंकि दुर्योधन के हठ के चलते ही यह युद्ध हुआ। दुर्योधन का साथ देने जितने भी राजा आए हैं उन्हें अर्जुन युद्ध स्थल के बीच में खड़ा होकर के देखना चाहते है । दोस्तों यह जरूरी नहीं कि आपका शत्रु सही हो, हो सकता है उसने गलत तरीका अपना करके आपको युद्ध में उलझाना चाहा जैसा की महाभारत में भी हुआ युद्ध तो करना ही पड़ा पड़ता है और वह तभी करना चाहिए जब आप अपने शत्रु को अच्छे से देख परख चुके हो ,जान चुके हो इसलिए अर्जुन कृष्ण से दोनों सेनाओं के बीच में रथ को ले जाने के लिए कहता है।
*……………।। 23 ।।*
संजय अपना आंखों देखा हाल बताते हैं। हे धृतराष्ट्र जैसा कि अर्जुन ने कहा था श्री कृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा संपूर्ण राजाओं के सामने रथ को खड़ा करके इस प्रकार कहा कि हे पार्थ! युद्ध के लिए जुटे हुए इन कौरवों को देख। पार्थ अर्जुन का ही नाम है दोस्तों उस अर्जुन का नाम है जो शंका में बस घिरने ही वाला है पार्थ हम सब भी हो सकते हैं और अगर हम अपने अपने आप को शंका में घिरा पाते हैं तो मदद करने के लिए कृष्ण भी दूर नहीं होते और ना ही उनकी गीता दूर होती है।
*………….।। 24 ।।*
कुंती का एक नाम पृथा भी था पृथापुत्र अर्थात कुंती पुत्र । पार्थ दोनों ही सेनाओं के मध्य में उपस्थित ताऊ ,चाचा ,दादा ,परदादा, गुरु ,मामा भाइयों पुत्रों पुत्रों, पोतों को देख रहे हैं महाभारत को इसीलिए तो धर्म युद्ध कहा गया है ऐसा युद्ध जो धर्म के लिए किया गया था और इस युद्ध का एक बड़ा परिवार दो हिस्सों में बंट गया था आधे सगे संबंधी एक तरफ और आधे दूसरी तरफ। हर किसी को फैसला करना था कि वह युद्ध में किसका साथ देना चाहता है दुर्योधन का या अर्जुन का ।
*………………..।। 25 ।।*
इन सब सगे संबंधियों के साथ-साथ अर्जुन अपने मित्रों को, ससुरों को, सुहृदयों को देख रहे हैं विचार कर रहे हैं पूरा जीवन पांडु पुत्रों और धृतराष्ट्र पुत्रों के साथ बिताया। सारे सगे सारे संबंधी एक ही तो है दोनों पक्ष में अपने ही अपने ही तो लोग हैं किंतु अब अपनों के ही दो पक्ष बन गए हैं उसमें से एक पक्ष शत्रु का है हर किसी से अर्जुन लड़ाई नहीं थी लेकिन अब युद्ध में वो उसके शत्रु थे और उसे उसके साथ लड़ना होगा।
*……………….।। 26 ।।*
अपने करीबी एकदम अपने सामने खड़े थे लेकिन शत्रु पक्ष में। उन उपस्थित संपूर्ण बंधुओं को देखकर वह कुंती पुत्र अर्जुन अत्यंत करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए श्री कृष्ण से कह रहे हैं।
यहीं से शुरुआत होती है दोस्तों। आरंभ होता है अर्जुन के विषाद का जिसके लिए संपूर्ण गीता की रचना हुई कृष्ण को मार्गदर्शन के लिए एक ऐसी रचना करनी पड़ी जो हमेशा हमेशा के लिए हर किसी को सही राह पर चलने के लिए प्रेरित करती रही है और आगे भी प्रेरित करती रहेगी।
*…………………..।। 27 ।।*
युद्ध की बात करना आसान होता है युद्ध करना कठिन। ऐसा ही अर्जुन के साथ हुआ, ऐसा ही दोस्तों हम सब के साथ होता है। ऐसी ही शंका का सॉल्यूशन भगवतगीता से श्री कृष्ण के द्वारा हमे मिलता है। दु:खी अर्जुन कहते हैं हे कृष्ण युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजन समुदाय अपनों को देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं जैसे अंगों में शक्ति ना हो और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कंप व रोमांस हो रहा है। न जाने कितने ही बार ऐसा हम सब के साथ होता है कि जब युद्ध के सम्मुख होते हैं तो जैसे शक्ति खत्म हो जाती है परीक्षा की घड़ी के समय पर भी ऐसे ही घबराहट होती है ना।
*…………।। 28 ।।*
अर्जुन अपने दुख को बता रहे हैं उनका दु:ख दोस्तों हमारी दुविधाओं से अलग नहीं है चाहे हम परीक्षा दे रहे हो, चाहे बिजनेस कर रहे हो, चाहे कोई बड़ा मैच खेलने जा रहे हो कितने ही ऐसे मौके आते हैं जब हम स्वयं को अर्जुन की अवस्था में पाते हैं लगता है जैसे कि हम युद्ध के लायक ही नहीं है। युद्ध हम कर ही नहीं पाएंगे अर्जुन के हाथ से उनका गांडीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा उनका मन भ्रमित सा हो रहा है इसलिए वह खड़े रहने में भी समर्थ नहीं है।
*…………..।। 29 ।।*
विश्व का सबसे बड़ा योद्धा अर्जुन हताश! है युद्ध से पहले अगर खुद को कांपता हुआ पाते हैं, देखते हैं डर से आपका मुंह सूख रहा है तो आपको निश्चित ही लगता है कि आप हरने वाले हैं दुनिया खत्म सी होती दिखती है। चारों तरफ अंधकार सा महसूस होता है ऐसे ही समय में हमें एक मार्गदर्शक की जरूरत होती है इसीलिए अर्जुन कहते हैं हे केशव!मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूं तथा युद्ध में स्वजन समुदाय को मार कर कल्याण भी नहीं दिखता यानि अपनों की जान लेकर मुझे क्या फायदा होगा।
*………………।। 30 ।।*
अर्जुन बात को स्पष्ट रखते हैं। डर में सब व्यर्थ लगता है। अर्जुन कहते हैं हे कृष्ण! मैं ना तो विजय चाहता हूं, ना राज्य। ना ही मैं सुखों को चाहता हूं। हे गोविंद हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से क्या लाभ है इस विषाद में शंका में, डर या घबराहट में अर्जुन सबकुछ छोड़ने को त्याग देने को तैयार है धन दुनिया उन्हें कुछ भी नहीं चाहिए वह ऐसे भयभीत और डर गए हैं की दुनिया की हर खुशी को छोड़कर इस समय बस इस युद्ध से बचना चाहते हैं इन्हीं लक्षणों को हमें भी पहचानना है ताकि ऐसी अवस्था में हम भी वो करें जो कृष्ण बताएंगे।
*…………….।। 31 ।।*
अर्जुन कहते हैं हमें जिनके लिए राज्य भोग और सुखादि अभीष्ट हैं वे ही यह सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं। सोचिए जीवन का हर युद्ध हर काम हम अपनों के लिए करते हैं हमारा सारा काम सारे फायदे सारी सुख शांति, भाग दौड़ सिर्फ और सिर्फ अपनों के लिए होती है। और यहां पर हमें अपनो को ही मारना पड़ रहा है इससे बड़ी क्या दुविधा होगी अब वोही अपने आप को मारने के लिए खड़े हैं और आपको भी उन्हें मारना पड़ेगा। ऐसी दुनिया किस काम की, यही उलझन अर्जुन के मन में है।
*……………..।। 32 ।।*
अर्जुन के सामने खड़े हैं उनके गुरुजन, ताऊ, चाचे, लड़के, दादे, मामे, ससुर, पौत्र ,साले और भी कई सारे संबंधी लोग। अर्जुन अपने हर संबंधी करीब से पहचान रहे है और पहचान के उन्हें बात भी रहे हैं।
*……………।। 33 ।।*
अगर आप युद्ध करने का निर्णय लेते हैं तो क्या आप यह कह सकते हैं कि मैं इस शत्रु को मारूंगा और उसे नहीं। युद्ध में तो हर कोई एक सैनिक होता है और अगर वह शत्रु पक्ष से हैं तो आपने उसको मारना ही है यही दुविधा है अर्जुन की, जो वो बता रहे हैं। हे मधुसूदन! मेरे मारने पर अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है। देखा दोस्तों तीन लोकों का राज्य भी अर्जुन को नहीं चाहिए अगर उसके लिए उसे अपनों का वध करना पड़ता है तो उसे वो नहीं चाहिए। दोस्तों जीवन में कई बार ऐसी घड़ी आती है जो सबसे प्रिय है ना, उसका त्याग करना पड़ता है क्योंकि हमें अपने ध्येय की ओर बढ़ना पड़ता है और अगर हम ऐसा करते हैं तभी हमें ध्येय की प्राप्ति होती है तब क्या अपनी सबसे प्यारी चीज को हम छोड़ सकते हैं।
*…………।। 34 ।।*
अर्जुन आगे कहते हैं ,हे जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी ,इन आतताईयों को मार कर हमें तो पाप ही लगेगा ना। शत्रु पक्ष में चाहे आतताई, बुरे लोग ही क्यों ना हो लेकिन है तो अपने। अपनों को मार कर अपनों को, दुख देखकर केवल पाप ही मिल सकता है पुण्य तो नहीं। यह कुरूपुत्रों के लालच का ही परिणाम था कि भाई भाई आमने-सामने थे। दोस्तों लालच से कभी किसी का भला नहीं होता महाभारत में भी नहीं होना था एक पक्ष को जीतना था तो दूसरे पक्ष को मारना था।
*……………….।। 35 ।।*
क्या अपने परिवार को मार कर आपको सुख मिल सकता है, इसीलिए महाभारत को धर्म युद्ध कहा जाता है। जब ऐसा धर्म संकट हो तो आप क्या करें। अर्जुन पूछते हैं हे माधव! अपने ही बांधव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं है क्योंकि अपने ही कुटुंब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे। दोस्तों जब कभी आपके सामने ऐसी परिस्थिति आए जिसमें लालच की वजह से बंटवाराहो रहा हो या झगड़ा हो रहा हो, तो ठंडे दिमाग से अर्जुन की इस हालात के बारे में सोचिएगा और देखिएगा इतना करके, दुनिया का सबसे बड़ा युद्ध करके किसको क्या हासिल हुआ।
*…………….।। 36 ।।*
*……………।। 37 ।।*
आपका शत्रु किसी भी पाप को करने को तैयार है लेकिन आप समझते हैं कि जो गलत है जो अनुचित्त है वो नहीं करना चाहिए। इन दो श्लोक में अर्जुन इसी दुविधा को बताया यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए यह लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए। दुश्मन गलत कर रहा है वो यह नहीं समझता लेकिन आप तो समझते हैं तो समझदार होने के नाते क्या आपको युद्ध से हटने के लिए नहीं सोचना चाहिए , लेकिन अगर युद्ध से हट गए तो उसे आपकी हर मानी जाएगी तो उसके लिए क्या आप तैयार होंगे दोस्तों।
*…………….।। 38 ।।*
जहां परिवार खत्म हो जाता है वहां कुछ नहीं बचता । कुल का नाश होने का मतलब सब कुछ खत्म हो जाना होता है ऐसी ही स्थिति में अर्जुन फंसे हुए हैं वो कहते हैं कुल के नाश से सनातन कुल धर्म नष्ट हो जाते हैं तथा धर्म का नाश हो जाने पर संपूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है अर्जुन जो कहना चाहते हैं वो यह है अगर परिवार नष्ट होता है तो धर्म नष्ट होता है। धर्म के नष्ट होने से पूरे कुल संपूर्ण परिवार में पाप बढ़ जाता है। परिवार ही है जो हमें अपनी जड़ों से अपने गुणों से, अपने आदर्शों से जोड़के रखता है उसके खत्म होते ही समाज में चारों तरफ पाप बढ़ने लगता है तो दोस्तों आप चाहे अपने चारों तरफ भी देख सकते हैं जहां परिवार का सम्मान नहीं वहां किसी भी बात का सम्मान नहीं होता और समाज पतन की ओर ही जाता है।
*………..।। 39 ।।*
परिवार की भलाई उसकी स्त्रियों पर निर्भर करती हैं अगर कोई घर बनता है तो वह परिवार की महिला की वजह से बनता है जिस घर में महिला नहीं होती तो कहते हैं तो उसे घर का कोई भविष्य ही नहीं। अगर यह स्त्रियां दूषित या करप्ट हो जाए तो उसका क्या असर होता है। अर्जुन कहते हैं हे कृष्ण, हे कृष्ण! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियां अत्यंत दूषित हो जाती है और स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्ण संकर उत्पन्न होता है।
*…………….।। 40 ।।*
वर्ण संकर का यहां पर मतलब है जहां वर्ण या समाज की मर्यादाओं को सम्मान न देते हुए गलत तरीके से ,गलत वर्णों के मेल से जब संतान की उत्पत्ति होती है तो वह सब कुछ खत्म कर देती है इसीलिए समाज के नियम बड़े सोच समझकर बनाए गए होते हैं दोस्तों और इतने हजारों वर्षों की सोच, नियमों को बिना सोचे समझे नहीं तोड़ना चाहिए। अर्जुन इसी बात का वर्णन कर रहे हैं कि हे कृष्ण! वर्ण संकर कुलघातियों को और कुल को नर्क में ले जाने के लिए ही तो होता है। लिफ्त हुई पिंड और जल की क्रिया वाले अर्थात श्राद्ध और तर्पण से वंचित उनके पितृलोक भी अधोगति को प्राप्त होते हैं।
*………………..।। 41 ।।*
अर्जुन ने कहा इन वर्ण संकर कारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुलधर्म और जातिधर्म नष्ट हो जाते हैं जहां वर्ण संकर होता है ना वहां धर्म का नाश निश्चित है। वर्ण संकर की वजह से जैसा कि अर्जुन ने बताया कुल के धर्म का नाश होता है और जाति के धर्म का भी नाश हो जाता है। जब कोई अपने धर्म का पालन नहीं करेगा, अपने कर्तव्य का निर्वाह नहीं करेगा और समाज मनमानी करके कोई नियम नहीं मानेगा तो फिर समाज, समाज कैसे रह जाएगा। समाज तो नाम ही कायदे और कानून का है जहां सब सम्मान से बिना किसी डर के एक साथ रह सके।
*…………….।। 42 ।।*
हे जनार्दन। जिनका कुलधर्म नष्ट हो गया है ऐसे मनुष्यो का अनिश्चित काल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आए हैं महाभारत के समय कुल की मान्यता इतनी थी दोस्तों कि अगर किसी के कुल का नाश हो जाता था तो माना जाता था तो अब यह हमेशा के लिए नर्क में ही रहेगा इसीलिए कुल की रक्षा करना, उसके सम्मान को बचाना,उसका नाम करना इतनी बड़ी बात मानी जाती थी। अर्जुन ही नहीं ऐसा हम भी सुनते आए हैं जो धर्म का, कुल का सम्मान नहीं करते वो सीधे नरक को जाते हैं इससे आप ऐसा भी मान सकते हैं कि जहां धर्म नहीं होता वो जगह अपने आप ही नरक बन जाती हैं। अपने चारों तरफ देखिए ना ऐसी कई जगह आपको आज के युग में भी दिख जाएगी।
*……………..।। 43 ।।*
अर्जुन आगे स्वयं को दोष दे रहे हैं। आह! शोक! हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिए उद्घित हो गए हैं। दोस्तों दुर्योधन जैसा भी है उसने जो भी निर्णय लिया लेकिन अर्जुन और उसकी सेना तो समझदार है तो क्या ऐसा उनके लिए ठीक है बेवकूफ का पाप शायद माफ भी हो जाए लेकिन बुद्धिमान से बहुत कुछ की उम्मीद की जाती है तो क्या समझदार अगर युद्ध के लिए तैयार हो जाता है तो उसकी गलती की माफी मिलेगी अर्जुन को लगता है नहीं, नहीं मिलेगी।
*………………।। 44 ।।*
आंखें बंद कर किसी अपने के बारे में सोचिए जो आपको बहुत पसंद है जो आपका अपना है जिसकी गोद में आप खेल हो जिसके साथ खेले हो चाहे वह आपसे बड़ा हो या छोटा हो। क्या आप उसे मार पाएंगे अरे उससे अच्छा तो आपको लगेगा कि उसके हाथों आप स्वयं मारे जाएं , यही बात अर्जुन कहते हैं यदि मुझे शस्त्र रहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डाले तो वो मरना भी मेरे लिए अधिक कल्याण कारक होगा।
*………………।। 45 ।।*
संजय जो धृतराष्ट्र को इस महान युद्ध का वर्णन दे रहे हैं वो बताते हैं हे धृतराष्ट्र! रणभूमि में शोक से उद्विग्न मनवाले अर्जुन इस प्रकार कहकर बाण सहित धनुष को त्याग कर रथ के पिछले भाग में बैठ गए हैं। दोस्तों यह था पहला अध्याय भगवत गीता का, अर्जुन विषाद योग, जी हां ईसमें अर्जुन के दुख के होने की उसके मन में शंका आने की और यही बातें हमारे सामने साफ मुकर होकर आती है इस पूरे अध्याय में। अब इसके बाद के अध्याय में श्री कृष्ण अर्जुन के दुख का , शंका का, परेशानियों का हर प्रश्नों का किस तरह भली भांति उत्तर देंगे उसे जानेंगे और सुनेंगे।
तो दोस्तों यह था भगवत गीता का प्रथम अध्याय अर्जुन विषाद योग जिसे आप तक पहुंचाया है शैलेंद्र भारती ने। बड़ी सुंदर ,साधारण और स्पष्ट शब्दों में इसे प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया इसके बाद मुलाकात होगी दूसरे अध्याय में तब तक के लिए आज्ञा दीजिए धन्यवाद! जय श्री कृष्ण।