यजुर्वेद को पढ़ते पढ़ते कई बार लगता है, यह केवल यज्ञ की विधि नहीं बल्कि जीवन जीने की कला भी है !
कभी कभी मन में सवाल उठता है : हजारों साल पुराने इन मन्त्रों में आज भी अनुशासन और अर्थ की चमक क्यों बनी हुई है ?
शायद इसलिए कि यह ग्रंथ अनुष्ठान, समाज और ब्रह्मांड के बीच एक ऐसी डोर बुनता है जिसमें कर्म और करुणा साथ साथ चलते हैं !
यजुर्वेद में गद्यात्मक यजुस् मंत्र और छन्दोबद्ध पद्य दोनों मिलते हैं ; एक तरफ यह पुरोहित को कदम दर कदम मार्गदर्शन देता है दूसरी ओर भीतर जागती हुई नैतिकता और सौंदर्य बोध को भी छू जाता है !
हमारे लिए सबसे दिलचस्प बात यह है कि इसमें यज्ञ समाज को एक लय में बाँधने का तरीका बन जाता है दान, सहभागिता, प्रकृति सम्मान और सामूहिक मंगलकामना !
यह अनुष्ठान को रूखा नियम नहीं रहने देता ; उसे अर्थ, भाव और समुदाय की साँस से भर देता है !
‘ यजुर्वेद ‘, ‘ यजुस् ‘ ( यज्ञ में बोले जाने वाले गद्यात्मक सूत्र / मंत्र ) और ‘ वेद ‘ ( ज्ञान ) का संगम, उपासना कर्म का सुव्यवस्थित ज्ञान है !
भाषा वैदिक संस्कृत है ; गद्य निर्देश और पद्य मंत्र साथ चलते हैं ताकि निर्देश भी साफ़ रहें और वातावरण भी बनता चले !
उच्चारण, स्वर और क्रम, उदात्त अनुदात्त के सूक्ष्म नियम, यहाँ अर्थ की रक्षा का कवच हैं ; ध्वनि ही अर्थ की देह लगती है !
यजुर्वेद दो बड़ी परंपराओं से चला, शुक्ल ( श्वेत ) और कृष्ण !
शुक्ल यजुर्वेद में मंत्र भाग अपेक्षाकृत अलग और साफ़ मिलता है जैसे किसी ने विधि को एक सुथरे नक्शे की तरह संहिताबद्ध कर दिया हो !
कृष्ण यजुर्वेद में मंत्र और व्याख्यात्मक अंश ( ब्राह्मण ) साथ साथ चलते हैं कभी ऐसा लगता है कि अर्थ उसी समय खुल रहा है जब मंत्र बोला जाता है, मानो पाठक और पुरोहित साथ सोच रहे हों !
शुक्ल यजुर्वेद की प्रमुख संहिता वाजसनेयी है और उसकी दो प्रसिद्ध शाखाएँ माध्यंदिन तथा काण्व, आज भी चर्चित हैं !
कृष्ण परंपरा में तैत्तिरीय संहिता सबसे प्रभावशाली मानी जाती है ; साथ ही मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठल कठ जैसी शाखाएँ भी अपनी अपनी पहचान लिए हुए हैं !
यह विविधता बताती है : एक ही दीपक से कई दीप जले, हर शाखा ने स्वर, क्रम और अर्थ की अपनी अपनी सुगंध बचाए रखी !
शतपथ ब्राह्मण ( शुक्ल ) और तैत्तिरीय ब्राह्मण ( कृष्ण ) यज्ञ विधि की दार्शनिक व्याख्याएँ देते हैं यहाँ कर्म की सूक्ष्मता विचार की ऊष्मा से मिलती है !
इन्हीं परंपराओं से जुड़े आरण्यक और उपनिषद, बृहदारण्यक, ईश, तैत्तिरीय, कठ, श्वेताश्वतर, मैत्री, कर्म से ज्ञान तक की यात्रा का सेतु बनते हैं !
हमारी समझ में यह सबसे खूबसूरत संगम है : बाह्य यज्ञ धीरे धीरे अन्तः यज्ञ का संकेत बन जाता है !
यजुर्वेद वेदी निर्माण, आहुति क्रम, हवि विधान, अग्नि संरक्षण और सोम याग तक चरण दर चरण निर्देश देता है ; जैसे पुरोहित के हाथ में एक जीवित नक्शा हो !
राजसूय, वाजपेय और अश्वमेध जैसे राज यज्ञ केवल सत्ता प्रदर्शन नहीं थे यह शासन धर्म और लोकमंगल का प्रतीक भाष्य भी थे !
कभी सोचा है अग्नि केवल घृत से नहीं जलती ; उसमें समाज की आस्था, पृथ्वी का आदर और भविष्य की शुभकामनाएँ भी समर्पित होती हैं !
गद्य मंत्र निर्देश देते हैं; पद्य मंत्र वातावरण रचते हैं, एक शिल्प, एक रस !
पाठ विन्यास, सम्हिता पाठ, पद पाठ, क्रम पाठ, जटा, घन, सुनने में भले जटिल लगें पर यही क्रम स्मृति और शुद्धता को पीढ़ियों तक सुरक्षित रखता है !
हमने जब पहली बार घनपाठ सुना लगा जैसे शब्द अपने ही आयनों में घुमते फिरते फिर मूल अर्थ के पास लौट आते हों अद्भुत लय, सघन एकाग्रता !
वाजसनेयी संहिता के चालीस अध्यायों में दर्शपौर्णमास, अग्निष्टोम, सोमयाग, राजसूय वाजपेय, सौत्रामणि, अश्वमेध, पुरुषमेध, सर्वमेध तक विस्तृत विधान मिलता है !
बीच बीच में अग्निचयन, उखाभरण, शतरुद्री ( रुद्र स्तोत्र ), वसोर्धारा, राष्ट्रभृद्दि जैसे प्रसंग यज्ञ को समाज और राज्य की आकांक्षाओं से जोड़ते हैं !
अंतिम अध्याय में ईशावास्योपनिषद का संलयन कर्म से ज्ञान की ओर एक नर्म सा मोड़, यही वह क्षण है जब विधि, दर्शन का हाथ थाम लेती है !
कई विद्वान रचना संदर्भ को कुरुक्षेत्र प्रदेश से जोड़ते हैं ; यह संकेत बताता है कि ऋग्वैदिक सप्तसिंधु से आगे समाज का भूगोल कैसे विस्तृत हुआ !
यजुर्वेद में कृषि, दान परंपरा, वर्णाश्रम और दैनन्दिन जीवन की झलकियाँ आती हैं, धर्म और जीवन अलग अलग कोठरियों में नहीं, एक ही गृहस्थी में साथ रहते हैं !
हमारे लिए यह सचमुच चौंकाने वाली बात थी कि अनुष्ठान के बीच बीच में इतने मानवीय स्पर्श दिखाई देते हैं जिनसे समाज, परिवार और ऋतु चक्र की ध्वनि सुनाई देती है !
उपनयन, विवाह, गृहप्रवेश, श्राद्ध अनेक संस्कारों में यजुर्वैदिक मंत्रों की उपस्थिति आज भी मिलती है यद्यपि क्षेत्र के अनुसार पाठ भेद स्वाभाविक हैं !
समकालीन जीवन में भी ऋत ( ब्रह्मांडीय क्रम ), धर्म ( नैतिक अनुशासन ) और समन्वय की धारणा, यही तो वह सूक्ष्म ध्वनि है जो परंपरा को जीवित रखती है !
सीधी सी बात : यह ग्रंथ पुराना है पर इसकी साँसें आज भी चलती हैं !
यदि कोई हमसे दोनों धाराओं का फर्क पूछे तो हम यूँ बताएँगे, शुक्ल यजुर्वेद में मंत्र अलग और साफ़ मिलते हैं जैसे किसी ने विधि निर्देश को सुव्यवस्थित क्रम में रख दिया हो !
कृष्ण यजुर्वेद में मंत्र और ब्राह्मण साथ साथ चलते हैं ; अर्थ उसी क्षण खुलता है जब कर्म का संकेत आता है यह प्रवाह थोड़ा कथात्मक, थोड़ा समवेत सा लगता है !
दोनों का उद्देश्य एक ही है : यज्ञ को अर्थ, क्रम और भाव के साथ साधना, एक ने संरचना को स्पष्ट किया, दूसरे ने अर्थ परतों को साथ रखा !
गुरुकुलों में स्वर शुद्धि, उच्चारण और क्रम का अभ्यास वर्षों चलता था कहीं पद पाठ की कड़ी अनुशासन, कहीं घनपाठ की अद्भुत जटिलता !
कहने को यह स्मरण है पर असल में यह अर्थ सुरक्षा है ; जैसे दीवारें नहीं बल्कि खिड़कियाँ बनाना जहाँ से अर्थ बार बार रोशनी में दिखे !
यही कारण है कि आज भी कई शाखाएँ अपनी अपनी धुन में जीवित हैं माध्यंदिन, काण्व, तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ, कपिष्ठल कठ !
शतपथ ब्राह्मण शुक्ल परंपरा का मानो विस्तृत अर्थ कोश है, यज्ञ के हर चरण का कारण, प्रतीक और संकेत वहाँ खुलता है !
तैत्तिरीय ब्राह्मण कृष्ण परंपरा की धड़कन है अध्वर्यु के कर्म, क्रिया क्रम और दृष्टांतों के साथ ; यहाँ विधि और अर्थ साथ साथ चलते हैं !
कभी कभी लगता है ब्राह्मण ग्रंथ अनुष्ठान की ‘ दूसरी आवाज़ ‘ हैं जो मन्त्रों के पीछे की मंशा सुनाती है !
कल्पना कीजिए, भोर का समय है ! वेदी पर अग्नि धीमे धीमे उठती है, हवा में घृत की सुगंध तैरती है, और मंत्रों की लय से जैसे सामूहिक श्वास ताल में जुड़ती है ! शब्द सिर्फ बोले नहीं जाते ; वे समुदाय के भरोसे की भाषा बनते हैं !
हमें लगता है यहीं यजुर्वेद अपनी सबसे कोमल रोशनी में दिखता है !
यदि अध्ययन शुरू करना हो तो वाजसनेयी संहिता के सरल अंशों से आरंभ करें और फिर शतपथ ब्राह्मण, तैत्तिरीय ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषदों की ओर बढ़ें परत दर परत अर्थ खुलता है !
पाठ रूपों का श्रवण अभ्यास पद, क्रम धीरे धीरे ध्वनि और अर्थ का गठजोड़ आत्मसात करा देता है !
यह यात्रा धैर्य माँगती है ; पर प्रतिफल में एक ऐसी दृष्टि देती है जिसमें विधि, दर्शन और लोक संवेदना एक साथ आ बसते हैं !
वाजसनेयी संहिता के चालीस अध्यायों का विन्यास यज्ञ जीवन का पूरा नक्शा रच देता है आरम्भिक अनुष्ठानों से लेकर ईशावास्योपनिषद तक !
शतरुद्री ( जिसे कई लोग ‘ श्रीरुद्रम ‘ के नाम से जानते हैं ) जैसी परंपराएँ आज भी रुद्र उपासना में गूंजती हैं मंत्र और भाव का एक तीखा, पावन संगम !
तैत्तिरीय परंपरा का दक्षिण भारत में गहरा प्रसार रहा ; वहीं माध्यंदिन और काण्व का उत्तर भारत से निकट रिश्ता माना जाता है !
यजुर्वेद सिखाता है कि कर्म केवल बाह्य क्रिया नहीं यह भीतर की व्यवस्था का अभ्यास भी है !
यज्ञ धर्म का असल अर्थ है : अपने हिस्से की आहुति देकर सामूहिक भरोसे को उजाला देना !
सरल शब्दों में यह विधि, सदाचार और सामंजस्य की एक साथ शिक्षा है !
अंत में बस इतना, यजुर्वेद कोई पुरानी फाइल नहीं एक जीवित परंपरा है !
वह विधि के हाथों में अर्थ की ज्योति थमाता है और समुदाय को एक लय में बाँध देता है, कभी शिल्प बनकर, कभी प्रार्थना बनकर, और कई बार दोनों बनकर !
कभी कभी हम भी यही सोचते हैं : शायद इसी संगति में इसकी दीर्घ आयु छिपी है अग्नि, शब्द और अर्थ का त्रिवेणी संगम !