उपनिषद वैदिक परंपरा का वह मोड़ हैं जहाँ बाहरी कर्म से ध्यान हटकर भीतर की रोशनी, आत्मा और ब्रह्म पर ठहर जाता है ! यह केवल ग्रंथ नहीं, अनुभूति हैं ; जैसे कोई दीप जो जगा हो और कह रहा हो देखो, जो खोज रहे हो, वह भीतर ही है !
‘ उपनिषद ‘, उप + नि + सद, गुरु के समीप बैठकर गूढ़ ज्ञान ग्रहण करने की विधि और विनय का संकेत ! ज्ञान यहाँ किताबों का बोझ नहीं ; समीपता, शान्ति और पात्रता का अभ्यास है धीरे धीरे, लेकिन गहरा !
वेद संहिताओं के बाद ब्राह्मण और आरण्यक ग्रंथों की ज़मीन पर उपनिषदों का अंकुर फूटा कर्मकांड से आगे बढ़कर आत्मविद्या की ओर ! भाषा बदलती रही, स्वर एक रहा : सत्य क्या है ? कौन जानने वाला है ? जानना क्या है ? यह संक्रमण केवल साहित्यिक नहीं, मन का प्रवास है बाहर के यज्ञ से भीतर के यज्ञ तक !
कहीं संवाद, कहीं कथा, कहीं सूक्ति ; शैली में विविधता, अर्थ में एक रस ! ‘ नेति नेति ‘ की परंपरा और ‘ ओम् ‘ की ध्वन्यात्मक प्रतीति एक ओर निरूपण का निषेध, दूसरी ओर मौन का संगीत ! शब्द कभी कम पड़ते हैं ; उपनिषद यह स्वीकारते हैं और यहीं उनकी विनम्रता सबसे सुंदर लगती है !
प्रमुख उपनिषद :
उपनिषदों का नाभि बिंदु आत्मविद्या है आत्मन् और ब्रह्म का अभेद ! जगत अनुभव है, पर अंतिम सत्य ? एकरस चैतन्य ! यही कारण है कि बार बार एक बात लौटकर आती है : ज्ञान ही मुक्ति का मार्ग है ! कर्म आवश्यक हैं ; लेकिन अंतिम लक्ष्य ? ज्ञान !
महावाक्य : चार दीप
कहना आसान है ; जीना कठिन ! और यही कठिनाई उपनिषदों की साधना बन जाती है !
कर्म निषिद्ध नहीं पूर्वपक्ष हैं ! उपासना चित्त को पारदर्शी बनाती है ; ध्यान एकाग्रता देता है ! फिर भी, बार बार सुनाई देता है : ज्ञान ही मुक्ति का मार्ग है यही राग, बार बार, अलग सुरों में !
ओम् सिर्फ एक ध्वनि नहीं ! वह अनुभव, जिसे शब्दों में बाँधना असंभव लगता है ! जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और फिर तुरीय एक एक परत जैसे हटती है और अंत में वही शांति, वही साक्षी !
जब भाषा सीमाएँ बताने लगे, उपनिषद इशारा करते हैं यह नहीं, वह नहीं ; फिर भी वही ! निषेध की यह पद्धति बेमानी नहीं वह मन को पकड़ धकड़ से मुक्त कर देती है और जहाँ पकड़ ढीली वहाँ साक्षात्कार की संभावना प्रबल !
ज्ञान गुरुमुख से पर अधिकार साधना से ! सत्यकाम जाबाल की कथा याद दिलाती है कि सत्य, साहस और सरलता यही असली पात्रता है ! कुल गोत्र से अधिक अंतरंग सच्चाई का मान है ; यह दृष्टि आज भी ताज़गी देती है !
गार्गी और मैत्रेयी नाम ही पर्याप्त ! प्रश्नों की धार, तर्क की गरिमा और अर्थ का अडिग केंद्र इन संवादों में ज्ञान किसी एक वर्ग की बपौती नहीं, साझा अन्वेषण की सांस्कृतिक स्मृति बन जाता है !
अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत तीनों की जड़ उपनिषद ! एक कहता है, एकत्व ; दूसरा, एकत्व में भेद का ताप ; तीसरा, भेद ही सत्य पर तीनों की जड़ में वही प्रश्न, वही प्रकाश ! भिन्न व्याख्याएँ एक ही स्रोत !
कर्म का फल, जन्म जन्मान्तर का क्रम नैतिक उत्तरदायित्व का वस्त्र ! पर ब्रह्मज्ञान ? वह कर्ता भोक्ता के द्वैत को ढीला कर देता है ! फिर वही पंक्ति लौटती है : ज्ञान ही मुक्ति का मार्ग है कर्म पथ है, लक्ष्य नहीं !
प्राण, इन्द्रिय निग्रह, अंतर्मुखता यह योग का शांत पक्ष है ! सत्य, दया, ब्रह्मचर्य नैतिक नहीं, आध्यात्मिक अनिवार्यताएँ ! मन की स्वच्छता के बिना सूक्ष्म को ज्ञेय कैसे होगा ?
कर्मकांड से आगे, तप और ज्ञान की प्रतिष्ठा यही उपनिषदों का हस्ताक्षर ! संन्यास, वानप्रस्थ, गुरु शिष्य परंपरा इन सबमें एक धुन सुनाई देती है : भीतर लौटो, और लौटकर बेहतर बनो समाज के लिए भी, आत्मा के लिए भी !
अलग दिशाएँ पर एक ही आकाश ! तप, वैराग्य, अहिंसा, आत्म साधना समूचा वैचारिक वातावरण जैसे भीतर की यात्रा के लिए तैयार हो चुका था ! भिन्न निष्कर्ष, साझा बेचैनी सत्य तक पहुँचने की !
गीता उपनिषदों का सार क्यों कही जाती है ? क्योंकि वह ज्ञान, कर्म और भक्ति का संगम है चिन्तन व जीवन का पुल ! उपनिषद जहाँ मौन में ले जाते हैं, गीता वहीं से व्यवहार का मार्ग दिखाती है संतुलित, दैनंदिन, सजीव !
उपनिषद संक्षिप्त हैं पर अर्थगर्भ ! कभी कविता, कभी गद्य ; पर गद्य भी पद्य जैसा ! ‘ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ‘ यह केवल मंगलाचरण नहीं, एक लय, जो पढ़ते पढ़ते मन में उतर जाती है !
बीज और वृक्ष, नदियाँ और सागर, मकड़ा और जाला, धनुष और बाण प्रतीक इतने सघन कि विचार चित्र बन जाए ! यही दृश्यता कठिन को सरल करती है ; साधना के लिए ठोस पकड़ देती है !
‘ कस्मिन्नु भगवो ? ‘ जैसे प्रश्न कठोर नहीं, वात्सल्यपूर्ण ! शास्त्रार्थ यहाँ वाद विवाद नहीं, सहयात्रा है ! आज के विमर्शों में जब शोर अधिक और सुनना कम हो, यह परंपरा याद दिलाती है प्रश्न सम्मान हैं, उत्तर जिम्मेदारी !
नीतिशास्त्रीय संकेत
नाद ब्रह्म की अनुभूति से संगीत का दर्शन समृद्ध हुआ ओम् की प्रतिध्वनि केवल ध्वनि नहीं, एक दृष्टि है ! मंदिर स्थापत्य की उर्ध्वता, दीप की स्थिर लौ सब में वही अन्तर्मुख शांति का साक्षात !
समय बदला, संदर्भ बदले पर उपनिषदों का आग्रह नहीं बदला : सत्य, ध्यान, करुणा, स्पष्टता ! भारतीय और पाश्चात्य अनेक चिंतक इस स्रोत से दीर्घकाल तक पीते रहे अद्वैत की चिंतन संपदा आज भी मनोविज्ञान, नेतृत्व और नैतिकता को नए सिरे से देखने की प्रेरणा देती है ! आधुनिक दुनिया की बेचैनी में यह साहित्य किसी स्लीपिंग पिल की तरह नहीं, जागती रोशनी जैसा है !
ज्ञान को सूचना नहीं, रूपान्तरण मानना यही उपनिषद शिक्षा का हृदय ! निकटता, अनुशासन, स्वतंत्र प्रश्न, स्वाध्याय इन पर खड़ी शिक्षा व्यक्ति को कुशल के साथ संवेदनशील बनाती है ; उपयोगी के साथ उदार !
नदियाँ, वायु, अग्नि, सूर्य सब उपाधियाँ हैं, सबमें ब्रह्म की चमक ! यह दृष्टि उपभोग नहीं सहजीवन सिखाती है मितव्ययिता, संतुलन, और कृतज्ञता का ! पर्यावरण चिंता के मौजूदा समय में यह स्वर बेहद जीवन्त लगता है !
उपनिषद केवल सिद्धान्त नहीं जीने की कला हैं ! आचरण, ध्यान, करुणा और विवेक चारों को एक धागे में पिरोना ! ज्ञान अगर अलग थलग हो तो सूखा ; साधना अगर बिना ज्ञान तो अंधी, समन्वय ही कुंजी !
धकधकाती दिनचर्या, अधैर्य, सूचनाओं का तूफान और भीतर एक कोना जो शांति चाहता है ! उपनिषद इसी कोने को आवाज़ देते हैं : ठहरो, देखो, पहचानो ! बार बार, अलग लय में, वही बात ज्ञान ही मुक्ति का मार्ग ; कर्म पथ हैं, उपासना दीप, पर अंतिम द्वार ? वह केवल ज्ञान है जीवित, जागृत, विनम्र !
उपनिषद प्राचीन होते हुए भी ताजे हैं क्योंकि उनका विषय मनुष्य का भीतर है और भीतर हमेशा नया रहता है ! महावाक्यों का सार केवल बोलने के लिए नहीं, जगने के लिए है ; साधना का अनुशासन केवल नियम नहीं, स्वाधीनता की तैयारी है ! अंततः वही आग्रह लौटता है जो खोज है, वह दूर नहीं ; निकट है, ‘ उपनिषद ‘ है समीप बैठने की विनम्रता, मौन के संगीत में अर्थ का खुलना, और ज्ञान के प्रकाश में भय का पिघल जाना !