सच कहूँ, गीता को हर बार पढ़ते हुए मुझे लगता है कि यह किताब मेरे बारे में मुझसे ज़्यादा जानती है ! कभी वह कंधे पर हाथ रखकर समझाती है, कभी दर्पण बनकर मेरे भ्रम दिखा देती है ! हो सकता है यह कह देना सरल लगे पर ” अर्जुन का विषाद ” जैसी सीधी सी बात जीवन में कितनी जटिल हो जाती है यह तो हम सब रोज़ महसूस करते हैं ! शायद गीता की असली ताकत यही है कि वह हमारे ही शब्दों में हमारे ही सांसारिक शोर शराबे के बीच बोलती है !
जब ” कर्मण्येवाधिकारस्ते ” का अर्थ पहली बार भीतर तक उतरा तो लगा जैसे किसी ने दिलासा दिया हो, कर्म में लग जा फल की चिंता बाद में ! यह शुरुआती सुकून बाद में एक चुनौती बन जाता है : क्या वाकई मैं फल की आसक्ति से मुक्त हो सकता हूँ ? शायद नहीं, कम से कम एकदम नहीं ! पर गीता यहाँ भी कठोर नहीं होती ! वह कहती है ध्यान से देख, आसक्ति पकड़ में आएगी, धीरे धीरे ढीली भी पड़ेगी ! यह ” धीरे धीरे ” मुझे बहुत मानवीय लगता है !
रोज़मर्रा की तस्वीरें
तीन सूत्र, सरल भाषा में
कभी लगता है अर्जुन को युद्ध क्यों ? क्या गीता कठोर निर्णयों के पक्ष में खड़ी है ? इस पर अलग राय हो सकती है, और होनी भी चाहिए ! मेरी समझ में गीता ” हिंसा ” नहीं, ” धर्म सम्मत कर्तव्य ” की बात करती है जब सारे प्रयास निष्फल हों, तब न्यूनतम आवश्यक कठोरता ! लेकिन यह सरल निष्कर्ष नहीं है ! सच कहूँ इस हिस्से को मैं आज भी पूरी तरह नहीं सुलझा पाया ! शायद हर युग अपना उत्तर गढ़ता है !
पाठक से कुछ सवाल
छोटे अभ्यास, बड़े असर
मुझे लगता है कि मैं अब भी गीता का आधा ही समझ पाया हूँ, शायद उससे भी कम ! कभी किसी श्लोक में जो चमक दिखती है, अगले सप्ताह वही श्लोक साधारण लगने लगता है ! यह उतार चढ़ाव परेशान कर सकता है पर यह भी तो जीवन की ही लय है लहर, विराम, फिर लहर ! और हाँ, यह मेरी व्यक्तिगत समझ है ; आप इसे अलग तरह से देख सकते हैं और देखना चाहिए ! गीता का पाठक जितना विविध, उसका अर्थ उतना समृद्ध !
कभी कभी मैं कल्पना करता हूँ गाँव की चौपाल, कुएँ के पास हौले हौले बातें, कोई बुज़ुर्ग धीमे स्वर में ” श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् ” सुनाता है ; या एक शहर की छत पर देर रात तक पढ़ाई करते हुए एक छात्र ” समत्व ” पर टिकने की कोशिश करता है ! अलग अलग दृश्य, एक सी धुन, हड़बड़ी कम करो, ध्यान बढ़ाओ, और जो जरूरी है, उसे साहस से करो !
मुझसे अक्सर पूछा जाता है गीता का ” सर्वस्व ” क्या है ? मैं हिचकता हूँ ! एक दिन लगता है समत्व ; दूसरे दिन श्रद्धा ; तीसरे दिन कुशल कर्म ! शायद यही ठीक है कि हम किसी एक उत्तर पर ज़िद न करें ! कुछ विषय मैं जानबूझकर नहीं छू रहा जैसे प्रकृति पुरुष का गूढ़ भेद या अठारह ( 18 ) अध्यायों का पूरा सार ! इस पर विस्तार से चर्चा फिर कभी ! अभी इतना कि जो हमारी रोज़ की उलझनों में काम आए, उसे पहले जगह दें !
दो तीन प्रिय पंक्तियाँ
कृपया इन्हें रटिए मत ! इन्हें छोटे छोटे प्रसंगों में टिकाकर देखिए तकरार में, थकान में, अनिश्चय में ! गीता कोई ” टॉपिक ” नहीं, एक ” टोन ” बनकर मदद करती है !
हमारा समय तेज़ है नौकरी की असुरक्षा, नई स्किल की बेचैनी, रिश्तों का दबाव, सोशल मीडिया का तुलना तंत्र ! ऐसे में गीता का सुझाव बहुत साधारण सा लगता है धैर्य रखो, कर्म करो, आसक्ति ढीली करो ! सच में ? हाँ, पर धीरे धीरे ! एक दिन में नहीं ! शायद यह समझना ही आधी जीत है कि टिके रहना भी कर्म है, सिर्फ़ दौड़ना नहीं !
अगर आप पूछें गीता मेरे लिए क्या है ? तो मैं कहूँगा एक शांत, ईमानदार मित्र ! जो मेरे डर पर पर्दा नहीं डालता, पर मुझे डर से बड़ा भी दिखाता है ! और अगर आज यह जवाब आपको पर्याप्त नहीं लगता, तो ठीक है ! कल कोई और पंक्ति मुझे भी नया जवाब दे देगी ! गीता ऐसी ही है स्थिर भी, चलायमान भी !