सुन्दरकाण्ड केवल एक काण्ड नहीं, एक घाट की सीढ़ियाँ है जहाँ उतरते उतरते भीतर कोई शांत झरना सुनाई देने लगता है ! सच कहूँ तो हर बार पढ़ते हुए कुछ नया खुलता है, जैसे कोई पुराना दोस्त अचानक अपनी कोई दबी हुई बात कह दे ! और यह अचरज की बात नहीं कि हनुमान की चाल, सीता की शांति, राम का धैर्य सब मिलकर हमें हमारी ही आवाज़ सुनाते हैं ?
जब मैंने पहली बार सुन्दरकाण्ड का पाठ सुना था, गाँव के चौपाल में रात का सन्नाटा था ! टिमटिमाते बल्ब, दूर कहीं ढोलक की धीमी ताल, और बुज़ुर्ग काका का स्वर ” जाइँ जयन्ति पठहिं सुनहिं, जनम करथ सो फलु ” लगभग फुसफुसाहट में बदल रहा था ! मैं छोटा था, पर ” समुद्र लांघन ” सुनते सुनते लगा कि दिल की धड़कन भी उछलकर किनारे बदल रही हो ! आज भी जब सीता हनुमान संवाद पढ़ता हूँ तो भीतर अजीब सी शांति उतर आती है ; जैसे किसी ने कंधे पर हाथ रखा हो और कहा हो थोड़ा ठहरो, सब ठीक होगा !
क्या यह केवल हनुमान की वीरता का सौन्दर्य है ? या सीता के धैर्य का ? या फिर वह सूक्ष्म करुणा, जो दुर्गमतम क्षणों में भी भाषा को कठोर नहीं होने देती ? मुझे लगता है, ” सुन्दर ” का रहस्य यही है शक्ति में विनय ! विजय में विनम्रता ! और संकट में एक मुस्कराता साहस ! यही तो बात है !
मैं यहाँ पूरी सूची नहीं दूँगा ; सुन्दरकाण्ड को थोड़ा खुला रहने दीजिए ताकि आप अपनी खोज भी जोड़ सकें ! फिर भी दो तीन दृश्य हैं, जो बार बार मन में उभर आते हैं !
मैनाक पर्वत का सत्कार : हनुमान उड़े जा रहे हैं ! पहाड़ आमंत्रण देता है ठहरो, विश्राम करो ! और हनुमान प्रणाम करके आगे बढ़ जाते हैं ! कितनी सरल सीख है न ? हर विराम बुरा नहीं होता, पर हर विराम जरूरी भी नहीं होता !
सुरसा की परीक्षा : विशाल मुख ! बढ़ता आकार ! और हनुमान का चातुर्य जितना वह फैलाती हैं, उतना ही वे खुद को छोटा कर लेते हैं ! कैसे सुंदर ढंग से तुलसी बताते हैं कि हर लड़ाई बल से नहीं, कभी कभी बुद्धि से जीती जाती है !
अशोक वाटिका : हरा भरा आँगन, करुणा से भरा आकाश ! सीता एक वृक्ष के नीचे ! हनुमान ऊपर, पत्तों के बीच छिपे ! यहां कथा का स्वर धीमा हो जाता है ! जैसे कोई प्रार्थना पास बैठ गई हो !
लंका दहन : पूँछ में आग ! राक्षसों का उपहास ! और फिर आग में से रोशनी ! हनुमान शत्रु की चाल को उसकी ही हार बना देते हैं ! विपत्ति को अवसर में बदल देने का यह दृश्य सचमुच प्रेरक है !
और भी प्रसंग हैं विभीषण से भेंट, ब्रह्मास्त्र बन्धन, रावण दरबार का निर्भीक संवाद जो आप जब भी पढ़ेंगे, अपना अर्थ खुद लेकर आएँगे !
सुन्दरकाण्ड का सबसे कोमल क्षण मेरे लिए यही है ! हथेली भर राम मुद्रिका, और उससे कहीं बड़ी आश्वस्ति ! सीता का प्रश्न सावधानी से भरा ! हनुमान का उत्तर सम्मान से भीगा ! यहाँ वीरता का शोर नहीं, करुणा की धीमी रोशनी है ! कितनी बार पढ़ा है, पर हर बार यह संवाद दिल को छू जाता है ! क्या प्रेम हमेशा इतना ही शांत होता है ? शायद हाँ !
बहुतों ने कहा है समुद्र मन का विस्तार है, लंका अहंकार का नगर, रावण वासनाओं का सम्राट, और सीता अंत: शुचिता ! इस दृष्टि से हनुमान केवल उड़ते नहीं, हमें उठाते हैं ! जाम्बवन्त स्मरण दिलाते हैं तुममें बल है, भूल गए हो बस ! और जब स्मरण लौट आता है, तो कदमों में पंख लग जाते हैं ! मुझे इसमें एक सीधा सा मंत्र दिखता है : नाम स्मरण ! जब मन उलझता है, ” राम ” कह देने से भाषा में ही नहीं, सांस में भी लय लौट आती है !
गाँव में हम देखते थे मंगलवार, शनिवार को सामूहिक पाठ ! रात भर चलता ! बच्चे सो जाते, पर चौपाइयाँ चलती रहतीं ! किसी घर में संकट हो, लोग कहते सुन्दरकाण्ड करा लो, राह निकल जाएगी ! शहर में दृश्य बदला है, पर आदत नहीं ! मेट्रो में भी किसी के कानों में इयरफ़ोन, और धीमे स्वर में ” जय हनुमान ज्ञान गुन सागर ” गूंजता है ! रामलीला के मंच पर अशोक वाटिका का दृश्य आते ही भीड़ खामोश हो जाती है ! सच कहूँ तो, यह सिर्फ धर्माचार नहीं, सामूहिक धड़कन है हम सब मिलकर एक बड़ी सांस लेते हैं !
कहानी पुरानी है, पर संकेत नए लगते हैं ! कुछ सूत्र, जो मैं बार बार अपने नोट्स में लिख लेता हूँ :
लक्ष्य एकाग्रता : मैनाक को नम्रता से ” ना ” जब मंज़िल साफ हो, आकर्षक पड़ाव भी कभी कभी भ्रम होते हैं !
रणनीति और लचीलापन : हनुमान कभी विराट, कभी सूक्ष्म ! परिस्थिति तय करे हम सधे !
संचार की संयमित कला : सीता से संवाद प्रमाण, आदर, करुणा ! तीनों साथ हों तो भरोसा जन्म लेता है !
नियोजित जोखिम : ब्रह्मास्त्र बन्धन स्वीकार कर दरबार तक पहुँचना कभी कभी नियंत्रित हार, बड़ी जीत का दरवाज़ा बनती है !
विजय में विनय : लौटकर श्रेय राम को ! यही नेतृत्व है कम बोलना, ज़्यादा कर जाना !
क्या यह सब ” प्रबंधन ” जैसा नहीं लगता ? लगता है ! पर फर्क यह है कि यहाँ हर सूत्र के पीछे करुणा है ; गणित नहीं, मन है !
सुन्दरकाण्ड की भाषा अवधी की नरमाई ! चौपाइयों की लय, दोहों की ठहर पढ़ते पढ़ते लगता है जैसे कोई बूढ़ी अम्मा कहानी सुनाते सुनाते बीच बीच में ” बेटा, समझा ? ” पूछ लेती हो ! उपमाएँ दृश्य बना देती हैं ! ” उमा कहउँ मैं अनुभव अपना ” तुलसी का अपना अनुभव हमारे कंठ तक आ जाता है ! और वही तो कविता की जीत है जब शब्द सिर्फ पढ़े नहीं जाते, सांस में शामिल हो जाते हैं !
कभी कभी मैं पुराने ट्रांजिस्टर पर रिकॉर्डिंग सुनता हूँ ! थरथराती सी आवाज़, बीच बीच में कर्र कर्र शोर ! फिर भी, चौपाई की मिठास शोर को भेदकर आती है ! यह छोटे छोटे क्षण हैं, जो सुन्दरकाण्ड को मंदिर से निकालकर बैठक में, और बैठक से सीधे दिल में ले आते हैं !
हाँ, मैं फिर कहूँगा शक्ति में विनय ! और विनय में साहस ! यही सुन्दरकाण्ड का रस है ! हम भूल जाते हैं, इसलिए दोहराना पड़ता है ! जैसे माँ हर बार कहती है धीरे खाना ! हम हर बार जल्दी करते हैं ! फिर भी वह कहती रहती है ! यही प्रेम है ; यही पाठ !
सभी प्रसंग नहीं छुए ! कई रह गए अक्षयकुमार का वध, लंकिनी का संकेत, विभीषण का अंतर संघर्ष ! जान बूझकर छोड़ा है ! कुछ चीज़ें किताब से नहीं, आँखों से पढ़ी जाती हैं ! आप जब पढ़ेंगे, अपनी अपनी खिड़कियाँ खुलेंगी ! हवा का रुख हर घर में अलग होता है ; अर्थ भी !
कभी कभी रात के दो बजे नींद टूटती है ! मन दौड़ता है ! तब मैं धीरे धीरे ” हनुमान ” नाम लेता हूँ ! कोई तांत्रिक जपा नहीं, बस एक याद ! और सच मानिए, सांस की धड़क एक लय पकड़ लेती है ! क्या यह चमत्कार है ? नहीं ! यह वही पुराना भरोसा है, जिसे हम आधुनिक व्यस्तता में कहीं गिरा आए हैं ! सुन्दरकाण्ड उसे वापस उठाकर जेब में रख देता है नज़र न आए, पर साथ रहे !
यह दृश्य मुझे इसलिए प्रिय है कि हनुमान शत्रु के दरबार में भी भाषा नहीं गंवाते ! मर्यादा बनी रहती है ! सत्य कठोर हो सकता है, पर अशिष्ट नहीं ! मुझे लगता है यही संवाद कला का शिखर है ! असहमति में भी सम्मान, साहस में भी संयम ! क्या हमारा डिजिटल युग यही तो नहीं भूल रहा ?
त्योहारों के समय घर में सुन्दरकाण्ड का पारायण होता था ! अम्मा की हथेलियों में मेहंदी की खुशबू, रसोई से आती लौंग इलायची की महक, और बाहर आँगन में तुलसी का दीपक ! पाठ के बीच बीच में कोई बच्चा ऊँघकर गिर पड़ता, सब हँस देते फिर चौपाई शुरू ! किताब का धर्म और रसोई की भाप एक साथ उठते थे घर, घर बनता था ! यही सांस्कृतिक धागे हैं, जो टूटें तो समझिए, सिर्फ़ किताब नहीं, कीर्तन की वह सामूहिक धड़कन भी खो जाएगी !
कॉर्पोरेट मीटिंग से लौटते हुए, कैब में बैठा किसी दिन मैंने मोबाइल पर सुन्दरकाण्ड का एक अंश सुना ! बाहर ट्रैफिक, भीतर शोर ! लेकिन ” निशिचर हीन करौं महि ” पर पता नहीं क्यों, कंधे ढीले हो गए ! लगा ठीक है, कल फिर कोशिश कर लेंगे ! यही वजह है कि आज भी यह काण्ड प्रेरक लगता है यह हमें जीत का वादा नहीं करता, पर थकान में टेक दे देता है ! और कभी कभी, बस वही काफी है !
आख़िर में, मैं इतना ही कहूँगा सुन्दरकाण्ड कोई दूर का ग्रंथ नहीं ; यह पास रखी रूमाल सी चीज़ है ! जरूरत पड़े, पसीना पोंछ लें ! आँसू भी ! और हाँ, मुस्कराहट भी इसी से लौट आती है क्योंकि हनुमान की कथा हमें याद दिलाती है कि हम अकेले नहीं हैं ! हमारे भीतर भी कहीं न कहीं वही उड़ान बची हुई है ! बस जाम्बवन्त सा कोई हमें हमारी ताक़त याद दिला दे या हम खुद ही याद कर लें !