जब मैंने पहली बार अष्टावक्र गीता पढ़ी, तो मुझे लगा मानो किसी ने भीतर रखा आईना साफ़ कर दिया हो ! धुंध हटती गई ! शब्द कम, असर ज़्यादा ! सच कहूँ कई बार लगा क्या इतना आसान हो सकता है ? बस पहचानो, और बस ? शायद ! पर उस ” शायद ” में ही तो खेल है !
जनक के प्रश्न पढ़ते पढ़ते कई बार मुझे अपने ही प्रश्न याद आ गए ! वही छटपटाहट ! वही ” मैं कौन हूँ ? ” ” मुझे क्या करना चाहिए ? ” ” यह जो मन का बोझ है उतरेगा कब ? ” और अष्टावक्र के जवाब सीधे दिल पर ! बिना घुमाव ! जैसे किसी ने कंधों से भार हटाया हो ! हल्कापन ! और एक गहरी साँस !
अष्टावक्र जिनका शरीर आठ जगह से टेढ़ा था पर दृष्टि ? सीधी ! निर्भीक ! जनक राजा होते हुए भी शिष्य ! यह अकेला तथ्य बताता है : आत्मबोध किसी एक वर्ग का मामला नहीं ! राजमहल में भी हो सकता है ! चूल्हे के पास भी ! दफ्तर में भी ! सड़क पर चलते चलते भी !
यह संवाद किताब भर का नहीं लगता ! जैसे आपके सामने कोई बैठा हो और कह रहा हो ” तुम कर्ता नहीं हो, साक्षी हो ! ” और भीतर से कोई धीमे धीमे जवाब देता हो ” हाँ शायद ! ” बस, यही ” शायद ” फिर ” हाँ ” में बदलता है ! धीरे धीरे ! पर हो जाता है !
क्या सिखाती है ? ( सीधे, सधे हुए बिंदु )
कभी कभी लगता है, अष्टावक्र गीता बात कम करती है, असर ज़्यादा करती है ! जैसे किसी ने बस कहा ” देखो ” और बात बन गई !
साक्षीभाव को शब्दों में बाँधना मुश्किल है ! पर कोशिश करता हूँ ! एक दिन ऑफिस में बड़ा उलझा हुआ था ! मेल पर मेल ! फोन पर फोन ! मन में चक्कर ! तभी अचानक याद आया ” यह हो रहा है ! और मैं इसे देख रहा हूँ ! ” बस ! जैसे मन का बोझ उतर गया हो ! काम उसी तरह रहा ! पर भीतर की खिंचाव ढीली ! मैं लगातार खुद को याद दिलाता रहा ” देख रहा हूँ ! ” और अजीब सा सुकून ! यह कोई जादू नहीं ! बस नज़र का बदलना है !
किसी शाम, सड़क पर चलते चलते, अचानक लगा, विचार उठते हैं, गिरते हैं ! भावनाएँ आती हैं, जाती हैं ! और जो देख रहा है, वह टिका रहता है ! यही साक्षीभाव है ! सरल है ! पर फिसलता भी है ! बार बार याद दिलानी पड़ती है ! जैसे जेब में रखा कोई छोटा सा मंत्र ” मैं साक्षी हूँ ! “
अद्वैत सुनते ही कई लोगों को लगता है जगत झूठा है ? नहीं ! यह कह देना आसान है ! अष्टावक्र का आशय कुछ और है ! जगत को नकारना नहीं ! बस उसकी पकड़ ढीली करना ! जैसे स्वप्न देखते हैं तभी वह सच लगता है ; जागते ही पता चलता है सब मन में था ! वैसे ही ! जगत है, पर उसका स्थायित्व नहीं ! टिकता जो है, वह चैतन्य है ! वही तुम हो ! बस इतना समझ में आ जाए बहुत कुछ साफ़ हो जाता है !
कभी कभी मैं खुद से पूछता हूँ अगर सब एक है, तो डर किस चीज़ का ? और भीतर से जवाब आता है आदत का ! पुराने संस्कारों का ! इसलिए अभ्यास ज़रूरी है ! हाँ, पहचान तत्काल हो सकती है ! पर पुराने ढर्रे उन्हें पिघलने में समय लगता है ! और यह ठीक है ! बहुत ठीक !
वैराग्य को लोग उदासीनता समझ लेते हैं ! ” मुझे किसी से मतलब नहीं ” यह वैराग्य नहीं ! वैराग्य का मतलब है मोह की पकड़ ढीली ! रिश्ते रहें, पर कब्ज़ा नहीं ! काम रहें, पर तनाव नहीं ! जिम्मेदारी रहे, पर कंधों पर पत्थर नहीं ! वैराग्य ठंडा नहीं बनाता ! उल्टा और कोमल बनाता है ! करुणा आती है ! साफ़गोई आती है ! भीतर से एक आवाज़ : ” सब ठीक है, और मैं भी ! “
कभी कभी मैं खुद पर हँस देता हूँ ! जो चीज़ें कल तक जान दे देने लायक लगती थीं, आज देखता हूँ बस आदत का नशा था ! वैराग्य का मतलब यही नशा उतरना ! धीरे धीरे ! बार बार ! हाँ, दोहराऊँगा वैराग्य भागना नहीं ! बिल्कुल नहीं !
अष्टावक्र गीता कर्म का विरोध नहीं करती ! बस कर्ताभाव की गाँठ ढीली करती है ! ” सब मैं कर रहा हूँ ” यह गाँठ ! इसे ढीला करो ! फिर देखो, वही काम ! वही लोग ! वही डेडलाइन ! पर भीतर सहजता ! जैसे नदी बह रही है ! उतावली कम ! स्पष्टता ज़्यादा !
मुझे लगता है, जिम्मेदारी तब भी रहती है ! फर्क बस इतना कि आत्म प्रदर्शन का दबाव घटता है ! निर्णय साफ़ होते हैं ! माफ़ करना आसान हो जाता है ! और हाँ, ” ना ” कहना भी ! क्योंकि भीतर जगह बनती है ! जब अहं का शोर कम होता है, करुणा की आवाज़ साफ़ सुनाई देती है !
छोटे छोटे अभ्यास
ये सब साधन हैं ! साध्य भी वही साक्षित्व ! कभी लगेगा कुछ नहीं हो रहा ! फिर अचानक मानो आईना साफ़ हो गया हो ! बहुत धीरे, पर बिल्कुल साफ़ !
गलतफहमियाँ
यह सब सुनने में सरल है ! जीने में थोड़ा अभ्यास माँगता है ! और यह ठीक है ! हम इंसान हैं ! मशीन नहीं !
आजकल हर चीज़ तेज़ है ! नोटिफ़िकेशन ! लक्ष्य ! तुलना ! लोग कहते हैं फोकस चाहिए ! मैं कहता हूँ विराम चाहिए ! एक छोटी सी जगह, जहाँ आप खुद को देख सकें ! अष्टावक्र गीता वही जगह देती है ! दो पंक्तियाँ पढ़ो और बस बैठ जाओ ! एक मिनट ! दो मिनट ! कहीं कुछ सन्नाटा उतरता है ! उसी सन्नाटे में निर्णय साफ़ होंगे ! उसी में रिश्तों में गर्माहट लौटेगी ! ऐसा मुझे लगता है ! पूरी तरह कहना मुश्किल है, पर अनुभव यही बताते हैं !
कभी कभी रात के सन्नाटे में एक वाक्य काफी होता है ” मैं वह नहीं जो बदलता है ! ” बस ! फिर जो दुख था वह थोड़ा सा सरक जाता है ! जो क्रोध था, उसकी धार कम हो जाती है ! और जो प्रेम था वह फैलता है ! बिना कारण ! बिना शर्त !
एक बार लगा कि यह सब ” आध्यात्मिक बातें ” कहीं मेरे काम को ढीला तो नहीं कर देंगी ? डर हुआ ! फिर मैंने देखा उल्टा हुआ ! जितना भीतर साफ़, उतना बाहर दक्ष ! जितना आसक्ति कम, उतना काम गहरा ! आश्चर्य ! पर सच ! और हाँ, कभी कभी उतार चढ़ाव आते हैं ! मन भागता है, पकड़ता है ! फिर याद आता है ” देखो ! ” बस लौट आते हैं !
और यह भी कह दूँ कभी कभी कुछ समझ में नहीं आता ! शब्द बेअसर लगते हैं ! तब मैं पढ़ना छोड़ देता हूँ ! बस सांस देखता हूँ ! चलना देखता हूँ ! चाय की भाप देखता हूँ ! और फिर धीरे धीरे वही बात फिर से खुलती है ! जैसे कोई पुराना दोस्त दरवाज़ा खटखटा दे !
” बंधन क्या है ? ” ” मुक्त कौन है ? ” ” साधना कैसे ? ” जनक पूछते हैं ! मैं पढ़ता हूँ और हँस देता हूँ ये तो मेरे ही सवाल हैं ! रोज़ के ! कल के भी ! अष्टावक्र जवाब देते हैं ” आसक्ति बंधन है ! साक्षी मुक्त है ! अभ्यास बस देखना ! ” क्या इतना सरल ? शायद हाँ ! और शायद यही कठिनाई भी क्योंकि मन को जटिलता पसंद है ! उसे लम्बे रास्ते, लम्बे तर्क, लम्बे कार्यक्रम अच्छे लगते हैं ! पर यहाँ बस एक कदम भीतर की ओर !
अष्टावक्र गीता कोई जादुई किताब नहीं ! पर हाँ यह एक खुला दरवाज़ा है जिस पल आप भीतर मुड़ते हैं, वह दरवाज़ा दिख जाता है ! ” यह रहा ! ” और आप जो हमेशा से थे दिखने लगते हैं ! यह अनुभव शब्दों में पूरा नहीं उतरता पर संकेत तो मिलते हैं हल्कापन, विस्तार, एक निर्भार हँसी !
कई बार सोचता हूँ क्या मैं बदल गया हूँ ? शायद थोड़ा ! शायद ज़्यादा ! कहना मुश्किल है पर इतना साफ़ है : अब जब भी मन उलझता है, एक आवाज़ आती है ” देखो ! ” और सच में जैसे ही देखना शुरू होता है कंधों से भार उतरता है ! जीवन वैसा ही रहता है पर उसका स्वाद थोड़ा बदल जाता है ! मीठा ! शांत ! और बेहद अपना !