श्रीमद् भागवत गीता दुसरा अध्याय सम्पूर्ण सार हिंदी भाषा में
श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का नाम “सांख्य योग” है। यह अध्याय गीता का एक महत्वपूर्ण भाग है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को जीवन, मृत्यु, आत्मा, कर्तव्य और योग के गहन दार्शनिक तत्वों की शिक्षा देते हैं। इस अध्याय का सार यह है कि यह अर्जुन के संदेह और नैराश्य को दूर करने के साथ-² उसे कर्मयोग और आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करता है।
आइए इसे विस्तृत रूप से समझें: –
संदर्भ :- कुरुक्षेत्र के युद्ध के मैदान में अर्जुन अपने ही सगे-संबंधियों, गुरुओं और मित्रों को सामने देखकर शोक और संदेह से भर जाता है। वह युद्ध करने से पीछे हटना चाहते है और अपने धनुष को त्याग देते है। पहले अध्याय में उसकी यह दुविधा स्पष्ट होती है। दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण उसका मार्गदर्शन शुरू करते हैं।
मुख्य बिंदु और सार :-
अर्जुन का शोक और प्रश्न (श्लोक 1-10): – अर्जुन अपने कर्तव्य को लेकर दुविधा में है। वह कहते है कि अपने स्वजनों को मारने से बेहतर है कि वह भीख मांगकर जीवन व्यतीत करे। वह श्रीकृष्ण से मार्गदर्शन मांगते है। यहाँ अर्जुन की मानसिक स्थिति एक सामान्य मनुष्य की तरह है, जो भावनाओं और नैतिक दुविधाओं में उलझा हुए है।
श्रीकृष्ण का उपदेश शुरू (श्लोक 11-30): :- श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि वह अनावश्यक शोक कर रहे है। वे कहते हैं, “अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे” (तू उन लोगों के लिए शोक करता है जो शोक के योग्य नहीं हैं, और विद्वानों जैसे वचन बोलते है)। वे आत्मा की अमरता का ज्ञान देते हैं: आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है, न जलती है, न सूखती है। यह शाश्वत, अविनाशी और अपरिवर्तनीय है। शरीर नश्वर है, लेकिन आत्मा नहीं।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि मृत्यु और जन्म प्रकृति का नियम है, इसलिए शोक करना व्यर्थ है।
कर्मयोग का परिचय (श्लोक 31-38):- श्रीकृष्ण अर्जुन को उसके क्षत्रिय धर्म की याद दिलाते हैं। वे कहते हैं कि युद्ध करना उसका कर्तव्य है और इसमें पीछे हटना कायरता होगी। वे बताते हैं कि युद्ध में जीत मिले तो राज्य मिलेगा, और हार मिले तो स्वर्ग प्राप्त होगा। दोनों ही स्थितियों में लाभ है।
निष्काम कर्म की शिक्षा (श्लोक 39-53):- श्रीकृष्ण यहाँ सांख्य योग और कर्मयोग का अंतर समझाते हैं। सांख्य योग आत्मा के ज्ञान पर आधारित है, जबकि कर्मयोग निष्काम भाव से कर्म करने की कला है।
वे कहते हैं, “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” (तेरा अधिकार केवल कर्म पर है, फल पर कभी नहीं)। अर्थात्, कर्म करो, लेकिन फल की चिंता मत करो। जो व्यक्ति फल की इच्छा छोड़कर कर्म करता है, वह स्थिर बुद्धि वाला होता है और दुख-सुख में समान रहता है।
स्थितप्रज्ञ का वर्णन (श्लोक 54-72):- अर्जुन पूछते है कि स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति कैसे व्यवहार करता है। इसके जवाब में श्रीकृष्ण “स्थितप्रज्ञ” (स्थिर बुद्धि वाले संत) के लक्षण बताते हैं:- वह सुख-दुख, लाभ-हानि में समान रहता है। वह इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है और मन को वश में करता है। वह क्रोध, भय और इच्छाओं से मुक्त होता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति जीवन में शांति और अंत में मोक्ष प्राप्त करता है।
अध्याय का मूल संदेश :- दूसरे अध्याय का सार यह है कि मनुष्य को आत्मा की अमरता को समझना चाहिए और अपने कर्तव्य का पालन निष्काम भाव से करना चाहिए। शोक, भय और संदेह से ऊपर उठकर, व्यक्ति को स्थिर बुद्धि के साथ जीवन जीना चाहिए। यह अध्याय कर्मयोग और ज्ञानयोग का आधार बनाता है, जो आगे के अध्यायों में और विस्तार से समझाया जाता है।
निष्कर्ष:- यह अध्याय अर्जुन को युद्ध के लिए मानसिक रूप से तैयार करता है और साथ ही मानव जीवन के लिए एक सार्वभौमिक दर्शन प्रस्तुत करता है। यह हमें सिखाता है कि जीवन की चुनौतियों का सामना साहस और संतुलन के साथ करना चाहिए, क्योंकि आत्मा अजर-अमर है और कर्म ही हमारा धर्म है।
पवित्र श्रीमद् भागवत गीता की जय हो!