श्रीमद् भागवत गीता ग्यारहवां अध्याय संपूर्ण सार हिंदी भाषा में :-
भागवत गीता का ग्यारहवां अध्याय, जिसे “विश्वरूप दर्शन योग” के नाम से जाना जाता है, इस महान ग्रंथ का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रभावशाली अध्याय है। यह अध्याय भगवान श्रीकृष्ण के विश्वरूप (विराट स्वरूप) के दर्शन और अर्जुन के अनुभव को वर्णित करता है। इस अध्याय का सार यह है कि यह मानव जीवन में ईश्वर की सर्वव्यापकता, उसकी अनंत शक्ति और ब्रह्मांड के साथ उसके एकत्व को दर्शाता है।
आइए इसे विस्तार से समझते हैं:
संदर्भ दसवें अध्याय में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपनी विभूतियों (दिव्य गुणों और शक्तियों) का वर्णन किया था। अर्जुन, जो पहले से ही श्री कृष्ण को एक सखा और मार्गदर्शक के रूप में देखते थे, अब उनकी महिमा को और गहराई से समझना चाहते है। वह श्रीकृष्ण से उनके विश्वरूप को देखने की प्रार्थना करते है, ताकि वह उनकी वास्तविक दिव्यता को प्रत्यक्ष अनुभव कर सके। विश्वरूप का दर्शन श्रीकृष्ण अर्जुन की प्रार्थना स्वीकार करते हैं और उसे दिव्य दृष्टि प्रदान करते हैं, जिसके द्वारा वह उनके विराट स्वरूप को देख सके। यह स्वरूप अनंत, असीम और भव्य है। अर्जुन देखते है कि श्रीकृष्ण का यह रूप असंख्य मुखों, नेत्रों, हाथों और रूपों से युक्त है। इसमें सूर्य और चंद्रमा जैसे प्रकाशमान तत्व, अग्नि की तरह प्रज्वलित तेज, और ब्रह्मांड के सभी प्राणी, देवता, ऋषि, और सृष्टि के तत्व समाहित हैं। यह दर्शन अर्जुन के लिए आश्चर्यजनक और भयावह दोनों होता है। अर्जुन का विस्मय और भयविश्वरूप को देखकर अर्जुन विस्मित हो जाते है। वह देखते है कि इस रूप में समय का संहारक स्वरूप भी प्रकट हो रहा है। कौरवों और पांडवों के योद्धा, जो कुरुक्षेत्र के युद्ध में भाग लेने वाले हैं, इस विराट रूप के मुख में प्रवेश कर रहे हैं और नष्ट हो रहे हैं। यह दृश्य अर्जुन को यह समझाता है कि श्रीकृष्ण केवल एक सखा नहीं, बल्कि सर्वोच्च शक्ति और काल के नियंता हैं। वह भयभीत होकर श्रीकृष्ण से अपने सामान्य रूप में लौटने की प्रार्थना करते है।
अध्याय का मुख्य संदेश ईश्वर की सर्वव्यापकता: – यह अध्याय दर्शाता है कि ईश्वर सृष्टि का आधार है और सभी कुछ उसी में समाहित है। वह सृजन, पालन और संहार तीनों का स्वामी है।
नश्वरता का बोध: – विश्वरूप में काल के संहारक स्वरूप को देखकर अर्जुन को यह समझ आता है कि जीवन और मृत्यु ईश्वर के अधीन हैं। यह उसे अपने कर्तव्य (युद्ध) के प्रति निस्संग भाव अपनाने की प्रेरणा देता है।
भक्ति और समर्पण: – अर्जुन श्रीकृष्ण के प्रति पूर्ण समर्पण और भक्ति का भाव व्यक्त करता है। यह अध्याय भक्ति योग के महत्व को भी रेखांकित करता है।
दिव्य दृष्टि की आवश्यकता: – श्रीकृष्ण बताते हैं कि उनके इस रूप को देखने के लिए साधारण मानव दृष्टि पर्याप्त नहीं है; इसके लिए ईश्वर की कृपा और दिव्य दृष्टि जरूरी है।
निष्कर्ष ग्यारहवां अध्याय अर्जुन के लिए एक परिवर्तनकारी अनुभव है। यह उसे यह समझने में मदद करता है कि श्रीकृष्ण केवल एक मानव रूप में उसके सामने नहीं हैं, बल्कि वे परमात्मा हैं, जो सृष्टि के हर कण में व्याप्त हैं। यह अध्याय मानव को अपने अहंकार को त्यागकर ईश्वर के प्रति समर्पण करने और अपने कर्तव्य को निभाने का संदेश देता है।
पवित्र श्रीमद् भागवत गीता की जय हो!