श्रीमद् भागवत गीता चौथा अध्याय संपूर्ण सार हिंदी भाषा में :-
श्रीमद्भगवद्गीता के चौथे अध्याय का नाम “ज्ञानकर्मसंन्यासयोग” है। यह अध्याय कर्म, ज्ञान और संन्यास के बीच संबंध को स्पष्ट करता है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि कर्म और ज्ञान परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि एक-दूसरे के पूरक हैं। इस अध्याय में कर्मयोग को ज्ञान के साथ जोड़कर इसे और गहराई दी गई है, साथ ही ईश्वर के अवतार और यज्ञ की अवधारणा को भी समझाया गया है।
आइए इसे विस्तार से देखें:-
मुख्य बिंदु:
कर्मयोग की प्राचीन परंपरा:-
श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन्होंने इस कर्मयोग के ज्ञान को सृष्टि के प्रारंभ में सूर्यदेव को दिया था, जो आगे विवस्वान से मनु और फिर इक्ष्वाकु तक पहुँचा। कालांतर में यह ज्ञान लुप्त हो गया, और अब वे इसे अर्जुन को पुनः बता रहे हैं। यह दर्शाता है कि कर्मयोग एक शाश्वत सत्य है।
ईश्वर का अवतार और उद्देश्य:-
श्रीकृष्ण अपने अवतार के रहस्य को प्रकट करते हैं। वे कहते हैं कि जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब वे धर्म की स्थापना के लिए अवतार लेते हैं। उनकी आत्मा अजन्मा और अविनाशी है, फिर भी वे प्रकृति के अधीन होकर मानव रूप में प्रकट होते हैं।
कर्म और ज्ञान का संन्यास:-
यहाँ संन्यास का अर्थ कर्म छोड़ना नहीं, बल्कि कर्म के फल की इच्छा का त्याग करना है। श्रीकृष्ण बताते हैं कि सच्चा संन्यासी वह है जो कर्म करता रहे, लेकिन उसे ज्ञान की अग्नि से शुद्ध कर दे। ज्ञान के द्वारा कर्म के बंधन कट जाते हैं।
यज्ञ की अवधारणा:-
इस अध्याय में यज्ञ को व्यापक रूप से परिभाषित किया गया है। यज्ञ केवल अग्नि में आहुति देना नहीं, बल्कि जीवन के हर कार्य को ईश्वर को समर्पित करना है। जैसे- इंद्रियों को संयम में रखना, प्राणायाम करना, ज्ञान को आत्मसात करना- ये सब यज्ञ के रूप हैं।
ज्ञान की अग्नि:-
श्रीकृष्ण कहते हैं कि ज्ञान की अग्नि सभी कर्मों को भस्म कर देती है, जैसे आग लकड़ी को जला देती है। जो व्यक्ति ज्ञान प्राप्त कर लेता है, वह कर्म के बंधनों से मुक्त हो जाता है, क्योंकि वह समझ जाता है कि वास्तव में कर्ता आत्मा नहीं, बल्कि प्रकृति के गुण हैं।
श्रद्धा और संदेह का प्रभाव:-
अंत में श्रीकृष्ण कहते हैं कि श्रद्धा से युक्त व्यक्ति ही इस ज्ञान को प्राप्त कर सकता है। संदेह करने वाला व्यक्ति न इस लोक में सुख पाता है, न परलोक में। इसलिए अर्जुन को संदेह त्यागकर कर्म में प्रवृत्त होना चाहिए।
प्रमुख श्लोक और उनका अर्थ:
श्लोक 4.7-8: “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत…”
अर्थ: जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब मैं अवतार लेता हूँ। साधुओं की रक्षा, दुष्टों का नाश और धर्म की स्थापना के लिए मैं युग-युग में प्रकट होता हूँ।
श्लोक 4.13: “चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः…”
अर्थ: मैंने गुणों और कर्मों के आधार पर चार वर्णों की रचना की, किंतु मैं स्वयं इनका कर्ता होते हुए भी अकर्ता और अविनाशी हूँ।
श्लोक 4.33: “श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप…”
अर्थ: हे परंतप! भौतिक यज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है, क्योंकि सभी कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं।
श्लोक 4.42: “तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः…”
अर्थ: इसलिए हे अर्जुन! अपने हृदय में स्थित अज्ञान को ज्ञान रूपी तलवार से काट डाल और योग में स्थित होकर उठ खड़ा हो।
सारांश:-
चौथा अध्याय कर्मयोग को ज्ञान के साथ जोड़ता है और यह सिखाता है कि कर्म का त्याग नहीं, बल्कि उसकी आसक्ति का त्याग करना चाहिए। श्रीकृष्ण अपने अवतार के उद्देश्य को स्पष्ट करते हैं और यज्ञ की व्यापक व्याख्या करते हैं, जो जीवन के हर पहलू को ईश्वर को समर्पित करने की प्रेरणा देता है। ज्ञान को सर्वोच्च बताया गया है, जो कर्म के बंधनों को काटकर मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। यह अध्याय अर्जुन को संदेह छोड़कर अपने कर्तव्य में दृढ़ होने का संदेश देता है।
यह अध्याय हमें यह भी सिखाता है कि जीवन में कर्म और ज्ञान का संतुलन आवश्यक है, और श्रद्धा के साथ आगे बढ़ने से ही सच्चा सुख और शांति प्राप्त होती है।
पवित्र श्रीमद् भागवत गीता की जय हो!