श्रीमद् भागवत गीता अठारहवां अध्याय संपूर्ण सार हिंदी भाषा में :-
श्रीमद्भगवद्गीता का अठारहवाँ अध्याय, जिसे “मोक्षसंन्यासयोग” कहा जाता है, इस महान ग्रंथ का अंतिम अध्याय है और यह गीता के समस्त शिक्षाओं का सार प्रस्तुत करता है। यह अध्याय भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद का समापन करता है, जिसमें कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग और संन्यास के तत्वों को एकीकृत रूप से समझाया गया है। यह अध्याय आत्म-ज्ञान, कर्तव्य, त्याग और मोक्ष के मार्ग को स्पष्ट करता है।
आइए इसके सार को विस्तृत रूप से देखें:
प्रमुख विषयत्याग और संन्यास का अंतर :- अध्याय की शुरुआत अर्जुन के प्रश्न से होती है, जिसमें वह संन्यास और त्याग के बीच अंतर जानना चाहते है। श्रीकृष्ण बताते हैं कि संन्यास: सभी कर्मों से पूर्ण विरक्ति और मन को आत्मा में स्थापित करना।
त्याग: कर्मों के फल की इच्छा का परित्याग करना, अर्थात् कर्तव्य करते हुए भी उनके परिणाम से आसक्ति न रखना। श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्मों को पूरी तरह छोड़ना संभव नहीं है, क्योंकि जीवन के लिए कुछ न कुछ कर्म करना आवश्यक है। इसलिए फल की इच्छा छोड़कर कर्म करना ही सच्चा त्याग है।
कर्मों का वर्गीकरण और उनके प्रभाव :- श्रीकृष्ण कर्मों को तीन श्रेणियों में बाँटते हैं: सात्त्विक कर्म: निःस्वार्थ भाव से, बिना आसक्ति के किया गया कार्य।
राजसिक कर्म: स्वार्थ और अहंकार से प्रेरित कार्य।
तामसिक कर्म: अज्ञान, लापरवाही या हिंसा से प्रेरित कार्य। वे कहते हैं कि सात्त्विक त्याग ही श्रेष्ठ है, जिसमें व्यक्ति कर्तव्य करता है, लेकिन फल की चिंता नहीं करता। पंच तत्व जो कर्म को प्रभावित करते हैं।
श्रीकृष्ण बताते हैं कि प्रत्येक कर्म पाँच कारकों से संचालित होता है: अधिष्ठान (शरीर या आधार), कर्ता (कर्त्ता), करण (इंद्रियाँ), चेष्टा (प्रयास), दैव (ईश्वरीय शक्ति या भाग्य)। इनके बिना कोई भी कार्य संभव नहीं है, इसलिए व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि वह अकेला कर्ता नहीं है। यह अहंकार को कम करने में मदद करता है। ज्ञान, कर्ता और बुद्धि के प्रकार
श्रीकृष्ण तीन गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) के आधार पर ज्ञान, कर्ता और बुद्धि का वर्गीकरण करते हैं: सात्त्विक ज्ञान: एकत्व और सत्य को देखना। राजसिक ज्ञान: भेदभाव और आसक्ति से युक्त। तामसिक ज्ञान: अज्ञान और भ्रम में डूबा हुआ। इसी तरह, कर्ता और बुद्धि भी इन गुणों से प्रभावित होते हैं। सात्त्विकता ही मोक्ष की ओर ले जाती है। कर्मयोग और भक्तियोग का समन्वय
श्रीकृष्ण कहते हैं कि अपने कर्तव्य को ईश्वर को समर्पित कर देना ही सच्चा कर्मयोग और भक्तियोग है। वे अर्जुन को सिखाते हैं कि सभी कर्म भगवान को अर्पित करने से मन शुद्ध होता है और आत्मा मुक्त होती है।
मोक्ष का मार्ग :- इस अध्याय का चरम लक्ष्य मोक्ष है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) से ऊपर उठ जाता है, वह ईश्वर के शरणागत होकर मोक्ष प्राप्त करता है। वे अर्जुन को निर्देश देते हैं:”सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।” (18.66) अर्थात्, “सभी धर्मों (कर्तव्यों) को त्यागकर केवल मेरी शरण में आ जा, मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत कर।” यह भक्ति और समर्पण का परम सूत्र है।
अर्जुन का संकल्प:- अध्याय के अंत में अर्जुन कहते है कि उसका मोह नष्ट हो गया है और वह अब श्रीकृष्ण के निर्देशानुसार युद्ध के लिए तैयार है। यह दर्शाता है कि गीता का संदेश अर्जुन को आत्म-ज्ञान और कर्तव्य-पालन की ओर ले गया।
सारांश:- अठारहवाँ अध्याय गीता के समस्त दर्शन का निचोड़ है। यह बताता है कि जीवन में कर्म अनिवार्य हैं, लेकिन उन्हें निःस्वार्थ भाव से, ईश्वर को समर्पित करके करना चाहिए। सत्त्वगुण को अपनाकर, अहंकार और आसक्ति को त्यागकर, और भगवान की शरण में जाकर मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है। यह अध्याय कर्म, ज्ञान, भक्ति और संन्यास के बीच संतुलन स्थापित करता है और मानव जीवन के अंतिम लक्ष्य को रेखांकित करता है।
पवित्र श्रीमद् भागवत गीता की जय हो!
गीता अठारहवां अध्याय सार – Geeta 18 Chapter Summary
