श्रीमद् भागवत गीता पंद्रहवां अध्याय संपूर्ण सार हिंदी भाषा में :-
श्रीमद्भगवद्गीता का पंद्रहवां अध्याय, जिसे “पुरुषोत्तम योग” कहा जाता है, भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए उपदेशों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह अध्याय आत्मा, परमात्मा, और भौतिक प्रकृति के बीच के संबंध को समझाने के साथ-साथ जीवन के परम लक्ष्य को स्पष्ट करता है।
आइए इसके सार को विस्तार से समझते हैं:-
अध्याय का मुख्य विषय:- पंद्रहवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण संसार को एक उल्टे अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष के रूप में वर्णन करते हैं और आत्मा के बंधन, मुक्ति, और परम पुरुष (पुरुषोत्तम) तक पहुँचने का मार्ग बताते हैं। यह अध्याय तीन प्रमुख तत्वों पर प्रकाश डालता है: – क्षर पुरुष (नश्वर जीवात्मा), अक्षर पुरुष (मुक्त आत्मा या प्रकृति से परे), पुरुषोत्तम (परमात्मा, जो इन दोनों से श्रेष्ठ और सर्वोच्च है)।
प्रमुख बिंदु और उनका सार संसार का वृक्ष (श्लोक 1-4) श्रीकृष्ण संसार को एक उल्टे पीपल के वृक्ष के रूप में चित्रित करते हैं, जिसकी जड़ें ऊपर (परमात्मा में) और शाखाएँ नीचे (भौतिक जगत में) फैली हैं। इसकी जड़ें कर्म और इच्छाओं से उत्पन्न होती हैं, और शाखाएँ विभिन्न लोकों और प्राणियों के रूप में फैलती हैं। इस वृक्ष को समझने और इसकी जड़ों को वैराग्य और ज्ञान रूपी शस्त्र से काटने से जीव मुक्ति प्राप्त कर सकता है। यह संसार की माया से मुक्त होने का प्रतीक है। जीव की प्रकृति और बंधन (श्लोक 5-7)जो लोग अहंकार, आसक्ति, और इंद्रियों के सुखों से मुक्त होकर परम लक्ष्य की खोज करते हैं, वे इस संसार वृक्ष से छूटकर परम धाम को प्राप्त करते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जीवात्मा उनके ही अंश हैं, लेकिन माया के प्रभाव से वे इस भौतिक शरीर और इंद्रियों के साथ बंधे हुए हैं। परमात्मा का स्वरूप (श्लोक 8-11)भगवान बताते हैं कि जीव जब एक शरीर छोड़कर दूसरा ग्रहण करता है, तो मन और इंद्रियाँ उसके साथ जाती हैं, लेकिन परमात्मा इन सबसे परे है। वह सूक्ष्म रूप से सभी प्राणियों के हृदय में विद्यमान है। योगीजन ध्यान और आत्मसंयम से इस परम सत्य को देख सकते हैं, जबकि अज्ञानी इसे नहीं समझ पाते। भगवान की सर्वव्यापकता (श्लोक 12-15)श्रीकृष्ण कहते हैं कि सूर्य का प्रकाश, चंद्रमा की शीतलता, अग्नि की तपन—यह सब उनकी ही शक्ति से उत्पन्न होता है। वे ही प्रकृति को संचालित करते हैं और सभी प्राणियों के जीवन का आधार हैं। वे हृदय में स्थित होकर स्मृति, ज्ञान, और विस्मृति प्रदान करते हैं। वेदों के द्वारा भी वे ही जाने जाते हैं। तीन पुरुषों का वर्णन (श्लोक 16-18)क्षर: यह नश्वर जीव हैं जो भौतिक शरीर के साथ बंधे हैं।अक्षर: यह मुक्त आत्माएँ हैं जो प्रकृति से परे हैं। पुरुषोत्तम: यह स्वयं भगवान हैं, जो क्षर और अक्षर दोनों से परे और सर्वोच्च हैं। वे ही सृष्टि के रचयिता, पालक, और संहारक हैं। मुक्ति का मार्ग (श्लोक 19-20) जो व्यक्ति इस पुरुषोत्तम तत्व को समझ लेता है और उनकी भक्ति करता है, वह सभी भ्रमों से मुक्त होकर परम मुक्ति प्राप्त करता है। यह अध्याय गीता का सबसे गोपनीय और श्रेष्ठ ज्ञान है, जिसे समझने से जीवन का उद्देश्य पूर्ण होता है।
अध्याय का संदेश:- पंद्रहवां अध्याय यह सिखाता है कि संसार की माया में फँसा जीव वास्तव में परमात्मा का अंश है। इस भौतिक बंधन से मुक्त होने के लिए उसे ज्ञान, वैराग्य, और भक्ति के मार्ग पर चलना चाहिए। परम पुरुष (पुरुषोत्तम) ही अंतिम आश्रय हैं, और उनकी शरण में जाने से ही शाश्वत शांति और मुक्ति संभव है।
निष्कर्ष:- यह अध्याय संक्षेप में गीता के समस्त दर्शन को समेटता है—संसार की क्षणभंगुरता, आत्मा की शाश्वतता, और परमात्मा की सर्वोच्चता। यह भक्त को प्रेरित करता है कि वह अपने जीवन को पुरुषोत्तम की भक्ति में समर्पित कर दे, ताकि वह इस जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो सके।
पवित्र श्रीमद् भागवत गीता की जय हो!