श्रीमद् भागवत गीता चौदहवां अध्याय संपूर्ण सार हिंदी भाषा में :-
श्रीमद्भगवद्गीता का चौदहवाँ अध्याय, जिसे “गुणत्रयविभागयोग” कहा जाता है, प्रकृति के तीन गुणों—सत्त्व, रजस् और तमस्—के स्वरूप, प्रभाव और उनके पार जाने के मार्ग को समझाता है। यह अध्याय भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया एक गहन दार्शनिक और आध्यात्मिक उपदेश है, जो मानव जीवन के बंधनों और मुक्ति के साधन को स्पष्ट करता है।
आइए इसका सार विस्तार से समझें:- मुख्य विषय इस अध्याय में श्रीकृष्ण प्रकृति के तीन गुणों (सत्त्व, रजस्, तमस्) का वर्णन करते हैं, जो समस्त सृष्टि और जीव के व्यवहार को नियंत्रित करते हैं। वे बताते हैं कि ये गुण जीव को देह और मन के माध्यम से बाँधते हैं, और इनसे ऊपर उठकर ही आत्मा अपनी शुद्ध अवस्था को प्राप्त कर सकती है।
प्रमुख बिंदु – तीन गुणों का परिचय (श्लोक 5-9):सत्त्वगुण: – यह शुद्धता, ज्ञान, प्रकाश और सुख का प्रतीक है। सत्त्वगुण मन को शांत और विवेकशील बनाता है, लेकिन यह भी बंधन का कारण बन सकता है यदि व्यक्ति इसके सुख में आसक्त हो जाए।
रजोगुण: – यह कर्म, इच्छा, और गतिविधि का गुण है। यह लालसा और आसक्ति को जन्म देता है, जिससे व्यक्ति सांसारिक कार्यों में उलझ जाता है।
तमोगुण:- यह अज्ञान, आलस्य, और प्रमाद का गुण है। यह मन को मूढ़ बनाता है और सत्य से दूर ले जाता है। ये तीनों गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं और जीव को प्रभावित करते हैं। इनका संतुलन हर व्यक्ति के स्वभाव और कर्म को निर्धारित करता है।
गुणों का प्रभाव (श्लोक 10-13):- श्रीकृष्ण बताते हैं कि ये गुण एक-दूसरे पर हावी होते रहते हैं। कभी सत्त्व बढ़ता है, कभी रजस्, और कभी तमस्। यह परिवर्तनशीलता ही जीवन की गति है। जब सत्त्व प्रबल होता है, व्यक्ति ज्ञान और शांति की ओर अग्रसर होता है। रजस् के प्रभाव में वह कर्म और महत्वाकांक्षा में लीन हो जाता है। तमस् के प्रभाव में अज्ञान, निद्रा और प्रमाद हावी हो जाते हैं।
गुणों के लक्षण और मृत्यु के समय उनका प्रभाव (श्लोक 14-18):- मृत्यु के समय जो गुण प्रबल होता है, वह अगले जन्म को प्रभावित करता है। सत्त्वगुण में मृत्यु होने पर व्यक्ति उच्च लोकों में जाता है, रजोगुण में मृत्यु होने पर मध्य लोक (मानव जीवन) में जन्म लेता है, और तमोगुण में मृत्यु होने पर निम्न योनियों में जन्म होता है। सत्त्व से शुद्ध फल, रजस् से दुख, और तमस् से अज्ञान प्राप्त होता है।
गुणातीत अवस्था (श्लोक 19-27):- श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति इन तीनों गुणों से परे चला जाता है, वह “गुणातीत” कहलाता है। ऐसा व्यक्ति न सुख में आसक्त होता है, न दुख से विचलित, और न ही किसी गुण के प्रभाव में आता है।
गुणातीत होने के लक्षण: समदर्शिता, निष्काम कर्म, और ईश्वर में अटूट भक्ति। इस अवस्था को प्राप्त करने का मार्ग है भक्ति और आत्म-ज्ञान। श्रीकृष्ण स्वयं को इन गुणों से परे बताते हैं और कहते हैं कि उनकी शरण में आने से जीव इन गुणों को पार कर सकता है।
अध्याय का संदेश :- यह अध्याय मानव जीवन के बंधनों का मूल कारण प्रकृति के तीन गुणों को बताता है और मुक्ति का मार्ग सुझाता है। श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि सच्ची शांति और मुक्ति तब मिलती है, जब मनुष्य इन गुणों के प्रभाव से ऊपर उठकर अपनी आत्मा को पहचान ले और परमात्मा में लीन हो जाए। भक्ति, ज्ञान और समर्पण ही इस लक्ष्य की प्राप्ति के साधन हैं।
निष्कर्ष:- चौदहवाँ अध्याय हमें आत्म-निरीक्षण करने और अपने व्यवहार में इन गुणों के प्रभाव को समझने की प्रेरणा देता है। यह सिखाता है कि जीवन का उद्देश्य केवल सांसारिक सुखों में नहीं, बल्कि गुणों से परे जाकर शाश्वत शांति और मुक्ति प्राप्त करने में है।
पवित्र श्रीमद् भागवत गीता की जय हो!