श्रीमद् भागवत गीता तेरहवां अध्याय संपूर्ण सार हिंदी भाषा में :-
श्रीमद्भगवद्गीता का तेरहवां अध्याय, जिसे “क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग” कहा जाता है, प्रकृति (क्षेत्र) और पुरुष (क्षेत्रज्ञ) के बीच के अंतर को समझाने पर केंद्रित है। यह अध्याय आत्मा, शरीर, और परमात्मा के स्वरूप को विस्तार से बताता है, साथ ही ज्ञान के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति के मार्ग को प्रकाशित करता है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझाते हैं कि सच्चा ज्ञान क्या है और इसे प्राप्त करने के लिए किन गुणों की आवश्यकता होती है।
तेरहवें अध्याय का सार (विस्तृत रूप में):-
1. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ की परिभाषा (श्लोक 1-7):क्षेत्र: – श्रीकृष्ण बताते हैं कि “क्षेत्र” का अर्थ है वह जो परिवर्तनशील है, अर्थात् भौतिक शरीर, पांच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश), इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, और अहंकार। यह वह सब है जो प्रकृति से बना है और जो नश्वर है। क्षेत्रज्ञ: इसका अर्थ है “जानने वाला” या आत्मा, जो क्षेत्र को जानता है। यह चेतना का वह शाश्वत तत्व है जो शरीर से अलग है और परिवर्तन से अछूता रहता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का यह ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान की नींव है।
2. सच्चे ज्ञान के लक्षण (श्लोक 8-12):- श्रीकृष्ण 20 गुणों के माध्यम से ज्ञान की व्याख्या करते हैं, जो आत्म-विकास और मोक्ष के लिए आवश्यक हैं। इनमें शामिल हैं: –
अमानित्वम् (नम्रता): -अपने अहंकार को त्यागना।
अदम्भित्वम् (दिखावा न करना): – सादगी और सत्यनिष्ठा।अहिंसा: – मन, वचन और कर्म से किसी को नुकसान न पहुँचाना।
क्षान्ति (क्षमा): – विपरीत परिस्थितियों में धैर्य रखना।
आर्जवम् (सरलता): – मन और व्यवहार में ईमानदारी।
गुरु सेवा:- गुरु के प्रति श्रद्धा और समर्पण।
शौचम् (शुद्धता): – आंतरिक और बाहरी पवित्रता।
स्थैर्यम् (दृढ़ता): – अपने लक्ष्य पर अडिग रहना।
आत्म-विनिग्रह: – इंद्रियों और मन पर नियंत्रण। इसके अलावा, जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था, और दुख से वैराग्य, सांसारिक सुखों से अनासक्ति, और परमात्मा में निरंतर चिंतन को भी ज्ञान के लक्षणों में गिना गया है।
3. ज्ञेय (जानने योग्य तत्व) (श्लोक 13-19):- श्रीकृष्ण बताते हैं कि जिसे जानना चाहिए, वह है परम सत्य या परमात्मा। इसके गुण इस प्रकार हैं:- यह अनादि, निर्गुण, और सर्वव्यापी है। यह इंद्रियों से परे है, फिर भी सभी इंद्रियों का आधार है। यह सृष्टि का सृजनकर्ता, पालक और संहारक है। यह सभी प्राणियों के हृदय में स्थित है और प्रकाश के समान ज्ञान का स्रोत है। इस तत्व को जानने से व्यक्ति अज्ञान के बंधनों से मुक्त हो जाता है।
4. प्रकृति और पुरुष का संबंध (श्लोक 20-24):प्रकृति (भौतिक शक्ति) और पुरुष (आत्मा) दोनों अनादि हैं। प्रकृति से सुख-दुख और कर्मों का बंधन उत्पन्न होता है, जबकि पुरुष शुद्ध चेतना है।आत्मा जब प्रकृति के साथ तादात्म्य कर लेती है, तो वह सांसारिक बंधनों में फंस जाती है। लेकिन वास्तव में आत्मा इन सबसे परे है। जो व्यक्ति विवेक और ध्यान के द्वारा प्रकृति और पुरुष के भेद को समझ लेता है, वह कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है।
5. मोक्ष का मार्ग (श्लोक 25-35):श्रीकृष्ण विभिन्न मार्गों का उल्लेख करते हैं जिनसे परम सत्य को जाना जा सकता है:-
ध्यान: आत्म-चिंतन और एकाग्रता।
सांख्य योग: तर्क और विवेक से सत्य का अनुसंधान।
कर्म योग: निष्काम कर्म के द्वारा आत्म-शुद्धि।
ज्ञान योग: शास्त्रों और गुरु के मार्गदर्शन से ज्ञान प्राप्ति। जो इन मार्गों से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को समझ लेता है, वह परमात्मा में लीन हो जाता है और जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है।
निष्कर्ष:- तेरहवां अध्याय आत्मा और परमात्मा के बीच के संबंध को समझने का एक गहन दार्शनिक और आध्यात्मिक पाठ है। यह हमें सिखाता है कि सच्चा ज्ञान वह है जो हमें अहंकार, आसक्ति और अज्ञान से मुक्त करे। यह अध्याय व्यक्ति को आत्म-निरीक्षण और विवेक के माध्यम से अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानने के लिए प्रेरित करता है, जो कि शाश्वत और अविनाशी है।
पवित्र श्रीमद् भागवत गीता की जय हो!