श्रीमद् भागवत गीता दसवां अध्याय संपूर्ण सार हिंदी भाषा में :-
भागवत गीता का दसवां अध्याय, जिसे “विभूति योग” के नाम से जाना जाता है, भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को उनके दिव्य गुणों और विश्व में उनकी सर्वव्यापी शक्तियों का वर्णन करता है। यह अध्याय गीता के मध्य भाग में आता है और भक्ति, ज्ञान, और ईश्वर की महिमा को समझने का एक महत्वपूर्ण आधार प्रदान करता है।
आइए इसके सार को विस्तार से समझते हैं:-
अध्याय का संदर्भ :- नौवें अध्याय में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को राज विद्या और राज गुह्य (सर्वोच्च ज्ञान और रहस्य) का उपदेश दिया था, जिसमें भक्ति के माध्यम से ईश्वर तक पहुंचने की बात कही गई थी। दसवें अध्याय में अर्जुन, श्रीकृष्ण की महिमा को और गहराई से जानने के लिए उत्सुक होता है। वह पूछता है कि वह किस तरह भगवान के स्वरूप को समझे और उनकी विभूतियों (दिव्य शक्तियों) को कैसे पहचाने। इसके जवाब में श्रीकृष्ण अपनी अनंत शक्तियों और विश्व में उनके प्रकट रूपों का वर्णन करते हैं।
मुख्य विषय ईश्वर की सर्वव्यापकता:- श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे ही इस सृष्टि के मूल कारण हैं। सभी कुछ उनसे उत्पन्न होता है, उनमें स्थित है और अंत में उनमें ही लीन हो जाता है। वे सृष्टि के प्रत्येक तत्व में विद्यमान हैं।
विभूतियों का वर्णन: – श्रीकृष्ण अपनी प्रमुख विभूतियों का उल्लेख करते हैं, जो इस विश्व में उनकी शक्ति और महिमा को दर्शाती हैं। वे कहते हैं कि उनकी शक्तियों का कोई अंत नहीं है, लेकिन अर्जुन की समझ के लिए वे कुछ उदाहरण देते हैं। जैसे:सूर्य, चंद्र, अग्नि आदि प्राकृतिक शक्तियों में वे सर्वोच्च हैं।जीवों में वे आत्मा के रूप में, मन में बुद्धि के रूप में, और शक्ति में तेज के रूप में मौजूद हैं। वे विष्णु, शिव, इंद्र जैसे देवताओं में, पर्वतों में हिमालय, नदियों में गंगा, वृक्षों में पीपल, और प्राणियों में श्रेष्ठ रूप हैं।
भक्ति और ज्ञान का संयोग: – श्रीकृष्ण यह समझाते हैं कि जो व्यक्ति उनकी इन विभूतियों को देखता है और उनके पीछे ईश्वर के स्वरूप को पहचानता है, वह भक्ति और ज्ञान के माध्यम से उन तक पहुंच सकता है। यह अध्याय भक्तियोग का आधार बनता है, जहां भक्त ईश्वर को हर जगह देखने की दृष्टि विकसित करता है।
प्रमुख श्लोक और उनका अर्थश्लोक 8: “अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते। इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।”
अर्थ: “मैं ही सब कुछ का मूल कारण हूँ, मुझसे ही सब कुछ उत्पन्न होता है। इसे समझकर बुद्धिमान लोग भाव के साथ मेरी भक्ति करते हैं।” यह श्लोक ईश्वर को सृष्टि का आधार बताता है और भक्ति की महत्ता पर जोर देता है।
श्लोक 20: “अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः। अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च।”
अर्थ: “हे अर्जुन, मैं सभी प्राणियों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ। मैं ही प्राणियों का आदि, मध्य और अंत हूँ।” यह श्लोक ईश्वर की सर्वव्यापकता और आत्मा के रूप में उनकी उपस्थिति को दर्शाता है।
श्लोक 41: “यद् यद् विभूतिमत् सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा। तत् तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्।”
अर्थ: “जो कुछ भी शक्तिशाली, सुंदर और तेजस्वी है, उसे मेरे तेज का अंश समझो।” यहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि विश्व में जो कुछ भी असाधारण है, वह उनकी शक्ति का ही प्रकटीकरण है।
अध्याय का सार :- दसवां अध्याय इस बात पर बल देता है कि ईश्वर केवल एक व्यक्तिगत रूप में ही नहीं, बल्कि संपूर्ण सृष्टि में अपनी विभूतियों के रूप में विद्यमान हैं। यह अध्याय अर्जुन को यह दृष्टि देता है कि वह प्रकृति और जीवन के हर पहलू में भगवान को देख सके। श्रीकृष्ण यह भी स्पष्ट करते हैं कि उनकी महिमा अनंत है और उसे पूर्ण रूप से वर्णन करना असंभव है, परंतु भक्ति और श्रद्धा से मनुष्य उनके स्वरूप को समझ सकता है।
संदेश आध्यात्मिक दृष्टि:- यह अध्याय हमें सिखाता है कि ईश्वर को केवल मूर्ति या मंदिर तक सीमित न करें, बल्कि उन्हें हर जगह, हर रूप में देखें। भक्ति का मार्ग: ईश्वर की महिमा को जानकर और उनके प्रति श्रद्धा बढ़ाकर मनुष्य मुक्ति की ओर बढ़ सकता है।
ज्ञान और विस्मय: – यह अध्याय मनुष्य में ईश्वर की अनंतता के प्रति विस्मय और सम्मान जागृत करता है। इस प्रकार, “विभूति योग” भगवान की महानता का गीत है, जो भक्त को उनकी शक्ति और सुंदरता के दर्शन कराता है और जीवन में उनकी उपस्थिति को अनुभव करने की प्रेरणा देता है।
पवित्र श्रीमद् भागवत गीता की जय हो!