श्रीमद् भागवत गीता पांचवें अध्याय संपूर्ण सार हिंदी भाषा में :-
श्रीमद्भगवद्गीता के पांचवें अध्याय का नाम “कर्मसंन्यासयोग” है। यह अध्याय कर्मयोग और संन्यास योग के बीच तुलना करता है और यह स्पष्ट करता है कि दोनों मार्ग अंततः एक ही लक्ष्य- मोक्ष की ओर ले जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि कर्म छोड़ना संन्यास नहीं है, बल्कि कर्म को ज्ञान और समता के साथ करना ही सच्चा संन्यास है। इस अध्याय में आत्मा की शुद्धि, समदृष्टि और ईश्वर के साथ एकता पर जोर दिया गया है।
आइए इसे विस्तार से समझें:-
मुख्य बिंदु:
कर्मयोग और संन्यास में भेद:
अर्जुन पूछता है कि कर्मयोग और संन्यास में से कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है। श्रीकृष्ण बताते हैं कि दोनों ही मोक्ष के साधन हैं, लेकिन कर्मयोग संन्यास से अधिक व्यावहारिक और श्रेयस्कर है। संन्यास का अर्थ केवल बाहरी कर्मों का त्याग नहीं, बल्कि फल की इच्छा और अहंकार का त्याग है। कर्मयोगी कर्म करते हुए भी संन्यासी हो सकता है।
सच्चा संन्यासी कौन?
सच्चा संन्यासी वह नहीं जो अग्नि और कर्मकांड छोड़ दे, बल्कि वह है जो अपने मन को इंद्रियों से ऊपर उठाकर सभी कर्मों को ईश्वर को समर्पित कर दे। ऐसा व्यक्ति न कुछ करता है, न करवाता है, क्योंकि वह स्वयं को कर्ता नहीं मानता।
ज्ञान और समता का महत्व:-
इस अध्याय में ज्ञान को वह शक्ति बताया गया है जो आत्मा को देह से अलग पहचानने में मदद करता है। जो व्यक्ति ज्ञान प्राप्त कर लेता है, वह सुख-दुख, मित्र-शत्रु, सम्मान-अपमान में समभाव रखता है। यह समदृष्टि ही उसे शांति प्रदान करती है।
ईश्वर में लीन होना:-
श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो योगी अपने मन को संयमित कर ईश्वर में लीन हो जाता है, वह सभी प्राणियों में एक ही परमात्मा को देखता है। ऐसा व्यक्ति कर्म करते हुए भी बंधन में नहीं पड़ता, क्योंकि वह ईश्वर के साथ एकत्व अनुभव करता है।
कर्मों का बंधन न लगना:-
जो व्यक्ति यह समझ लेता है कि सभी कर्म प्रकृति के गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) द्वारा होते हैं और आत्मा केवल साक्षी है, वह कर्मों के फल से मुक्त रहता है। वह न कुछ करता है, न कुछ छोड़ता है- यह उसकी आंतरिक अवस्था होती है।
शांति की प्राप्ति:-
अंत में श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति राग-द्वेष से मुक्त होकर मन को वश में करता है, वह ब्रह्म (ईश्वर) को प्राप्त करता है और जीवनमुक्त अवस्था में शांति का अनुभव करता है।
प्रमुख श्लोक और उनका अर्थ:
श्लोक 5.2: “संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ…”
अर्थ: संन्यास और कर्मयोग दोनों ही कल्याणकारी हैं, किंतु संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग श्रेष्ठ है।
श्लोक 5.7: “योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः…”
अर्थ: जो योग में स्थित है, जिसकी आत्मा शुद्ध है, जिसने मन और इंद्रियों को जीत लिया है, वह सभी प्राणियों में आत्मा को देखता है और कर्म करते हुए भी लिप्त नहीं होता।
श्लोक 5.18: “विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि…”
अर्थ: ज्ञानी पुरुष विद्या और विनय से संपन्न ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और चांडाल में भी समान दृष्टि रखता है।
श्लोक 5.29: “भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्…”
अर्थ: जो मुझे सभी यज्ञों और तपों का भोक्ता, सभी लोकों का स्वामी और सभी प्राणियों का मित्र जानता है, वह शांति प्राप्त करता है।सारांश:पांचवां अध्याय कर्मयोग और संन्यास योग को एक समान लक्ष्य की ओर ले जाने वाला बताता है। यह सिखाता है कि सच्चा संन्यास बाहरी त्याग में नहीं, बल्कि मन की शुद्धि, समता और ईश्वर में समर्पण में है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्म करते हुए भी व्यक्ति आत्मा को कर्ता से अलग समझकर बंधन से मुक्त रह सकता है। समदृष्टि और ज्ञान के द्वारा योगी ईश्वर में लीन हो जाता है और शांति प्राप्त करता है। यह अध्याय हमें जीवन में संतुलन, निष्कामता और आत्म-जागरूकता का पाठ पढ़ाता है। यह समझाता है कि कर्म और संन्यास में कोई विरोध नहीं है, बल्कि दोनों एक ही सत्य के दो पहलू हैं।
पवित्र श्रीमद् भागवत गीता की जय हो!