श्रीमद् भागवत गीता सोलहवां अध्याय संपूर्ण सार हिंदी भाषा में :-
श्रीमद्भगवद्गीता का सोलहवां अध्याय, जिसे “दैवासुरसंपद्विभागयोग” (दैवी और आसुरी संपत्ति का विभाजन) कहा जाता है, भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दैवी (दिव्य) और आसुरी (राक्षसी) स्वभाव के गुणों के बीच अंतर को समझाने वाला एक महत्वपूर्ण अध्याय है। इस अध्याय में मानव स्वभाव के दो विपरीत पहलुओं का वर्णन किया गया है, जो यह निर्धारित करते हैं कि व्यक्ति का जीवन आध्यात्मिक उन्नति की ओर जाता है या पतन की ओर।
यहाँ इसका विस्तृत सार प्रस्तुत है:-
1. अध्याय का प्रारंभ: – दैवी और आसुरी प्रकृति का परिचय भगवान श्रीकृष्ण इस अध्याय की शुरुआत में अर्जुन को बताते हैं कि मानव जीवन में दो प्रकार की प्रकृतियाँ होती हैं:
दैवी प्रकृति: – जो गुण व्यक्ति को मुक्ति, सत्य, और ईश्वर की ओर ले जाते हैं।
आसुरी प्रकृति: – जो गुण व्यक्ति को अज्ञान, अहंकार, और बंधन में बाँधते हैं। ये दोनों प्रकृतियाँ मनुष्य के कर्मों, विचारों और जीवनशैली से प्रकट होती हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि दैवी गुणों को अपनाने से व्यक्ति का कल्याण होता है, जबकि आसुरी गुण उसे अधोगति की ओर ले जाते हैं।
2. दैवी गुणों का वर्णन (श्लोक 1-3) श्रीकृष्ण दैवी गुणों की सूची प्रस्तुत करते हैं, जो नैतिक उत्थान के आधार हैं। इनमें शामिल हैं: –
अभयम् (निडरता): – सत्य और धर्म में दृढ़ विश्वास के कारण भय का अभाव।
सत्त्वसंशुद्धि: – मन और बुद्धि की पवित्रता।
ज्ञानयोगव्यवस्थिति: – आत्मज्ञान के लिए निरंतर प्रयास। दान, दम, यज्ञ: उदारता, आत्मसंयम, और निःस्वार्थ कर्म।
स्वाध्याय: – शास्त्रों का अध्ययन और आत्मचिंतन।
तप, आर्जवम्: – तपस्या और सरलता।
अहिंसा, सत्य, अक्रोध: – हिंसा का त्याग, सत्यनिष्ठा, और क्रोध पर नियंत्रण।
त्याग, शान्ति, अपैशुनम्: – वैराग्य, शांति, और दूसरों की निंदा से बचना।
दया, अलोलुपत्वम्:- सभी प्राणियों के प्रति करुणा और लोभ का अभाव। मार्दवम्, ह्रीः, अचापलम्: कोमलता, लज्जा (अनैतिकता से बचना), और स्थिरता।तेज, क्षमा, धृति: उत्साह, क्षमाशीलता, और दृढ़ता।
शौचम्, अद्रोहः, नातिमानिता: – शारीरिक-मानसिक स्वच्छता, दूसरों को नुकसान न पहुँचाना, और अहंकार का अभाव। ये गुण व्यक्ति को ईश्वर के निकट ले जाते हैं और उसे जीवन में शांति व संतोष प्रदान करते हैं।
3. आसुरी गुणों का वर्णन (श्लोक 4-21)इसके विपरीत, श्रीकृष्ण आसुरी स्वभाव के लक्षणों का वर्णन करते हैं, जो व्यक्ति को अंधकार और दुख की ओर ले जाते हैं। इनमें शामिल हैं: – दम्भ, दर्प, अभिमान: दिखावा, घमंड, और अहंकार।
क्रोध, परुषता: क्रोध और कठोर व्यवहार।
अज्ञान: सत्य और धर्म के प्रति अज्ञानता।
काम, लोभ, असत्य: अनियंत्रित इच्छाएँ, लालच, और झूठ।
नास्तिकता: ईश्वर और शास्त्रों में अविश्वास।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि आसुरी स्वभाव वाले लोग यह मानते हैं कि यह संसार केवल भौतिक सुखों के लिए है। वे आत्मा की अमरता और ईश्वर के अस्तित्व को नकारते हैं। ऐसे लोग स्वार्थ, हिंसा, और अनैतिकता में लिप्त रहते हैं। वे अपनी इंद्रियों को संतुष्ट करने के लिए धन और शक्ति का दुरुपयोग करते हैं। श्लोक 10-15 में आसुरी प्रवृत्ति के लोगों के विचारों का वर्णन है:वे कहते हैं, “मैं सबसे श्रेष्ठ हूँ, मेरे पास सब कुछ है।””मैं और धन संग्रह करूँगा, अपने शत्रुओं को नष्ट करूँगा। “वे अहंकार से भरे होते हैं और क्षणिक सुखों में डूबे रहते हैं।
4. आसुरी स्वभाव का परिणाम (श्लोक 16-20)श्रीकृष्ण चेतावनी देते हैं कि आसुरी गुणों का पालन करने वाले लोग जीवन भर भ्रम और चिंता में रहते हैं। उनकी इच्छाएँ कभी खत्म नहीं होतीं, जिसके कारण वे बार-बार पाप करते हैं। अंत में, वे नरक (अधोगति) को प्राप्त करते हैं, जो तीन प्रकार के होते हैं:- काम (अनियंत्रित वासना)क्रोध (अनियंत्रित गुस्सा)लोभ (अनियंत्रित लालच) ये तीनों “नरक के द्वार” कहलाते हैं, जो आत्मा को नष्ट करते हैं।
5. उपाय और निष्कर्ष (श्लोक 21-24)अंत में, श्रीकृष्ण अर्जुन को सलाह देते हैं कि इन तीनों दोषों (काम, क्रोध, लोभ) का त्याग करना चाहिए। जो व्यक्ति ऐसा करता है, वह अपने कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है। वे कहते हैं कि जीवन में शास्त्रों को अपना मार्गदर्शक बनाना चाहिए, क्योंकि शास्त्र ही यह बताते हैं कि क्या करना उचित है और क्या नहीं।
शास्त्रानुसार आचरण करने से व्यक्ति दैवी गुणों को अपनाता है और ईश्वर को प्राप्त करता है।
सारांश:-
सोलहवाँ अध्याय मनुष्य के भीतर की दो शक्तियों – दैवी और आसुरी – का विश्लेषण करता है। यह हमें आत्म-निरीक्षण करने और अपने गुणों को पहचानने की प्रेरणा देता है। दैवी गुणों को अपनाने से शांति, ज्ञान और मुक्ति मिलती है, जबकि आसुरी गुणों का पालन करने से दुख और पतन निश्चित है। श्रीकृष्ण का संदेश स्पष्ट है: शास्त्रों के मार्ग पर चलकर अपने जीवन को दैवी बनाओ और आसुरी प्रवृत्तियों से दूर रहो। यह अध्याय न केवल आध्यात्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि व्यावहारिक जीवन में भी हमें सही और गलत के बीच चयन करने की प्रेरणा देता है।
पवित्र श्रीमद् भागवत गीता की जय हो!