मनुस्मृति, जिसे मानव धर्मशास्त्र भी कहा जाता है प्राचीन हिंदू स्मृति साहित्य का वह ग्रंथ है जो जीवन के आचार विचार, सामाजिक व्यवस्था और विधि विधान को एक सूत्र में पिरोने की कोशिश करता है ! पहली बार इस ग्रंथ से परिचय होते ही लगता है यह सिर्फ धर्म का आख्यान नहीं, समाज की बनावट का खाका भी है ! क्या यह संभव है कि इतने पुराने नियम आज भी असर डालते हों ?
परंपरा इसे आदिपुरुष मनु से जोड़ती है वह मनु जिन्होंने धर्म का ज्ञान आगे बढ़ाया और जिनकी वाणी भृगु ऋषि के माध्यम से संहिताबद्ध हुई ! आधुनिक अनुसंधान कहता है, यह ग्रंथ एक दिन में नहीं बना ; सदियों में संकलन, संपादन और संशोधन से इसका वर्तमान रूप तैयार हुआ ! पुराने और नए का संगम यही इसकी रचना गाथा की सबसे सच्ची पहचान लगती है !
आम तौर पर मनुस्मृति बारह ( 12 ) अध्यायों में मानी जाती है और श्लोक संख्या संस्करणानुसार बदलती रही है ! विषयों का फैलाव बड़ा है सृष्टि की रचना से लेकर आश्रम धर्म, वर्ण धर्म, गृहस्थजीवन, विवाह रीति, राजधर्म, न्याय प्रक्रिया, दंड विधान, कर व्यवस्था, प्रायश्चित्त और अंततः कर्म फल व मोक्ष तक ! एक तरह से यह धर्म, समाज और कानून तीनों की साझा मेज़ है, जहां हर अध्याय एक अलग थाली की तरह परोसा गया है !
यहां धर्म केवल अनुष्ठान नहीं बल्कि आचरण की नैतिक रेखा है व्यक्तिगत भी, सामुदायिक भी ! वैदिक आदर्शों को व्यवहारिक नियमों में ढालने का प्रयास दिखता है जैसे आदर्श को रोज़मर्रा के फैसलों में बदल देना ! यहां स्पष्ट दिखता है कि धर्म को व्यवस्था से अलग करके समझा ही नहीं जा सकता !
ब्रह्मचर्य से संन्यास तक जीवन के चारों आश्रमों का विस्तृत वर्णन है, मानो जीवन यात्रा का एक मार्ग मानचित्र ! संस्कारों और पंचमहायज्ञ का उल्लेख रोज़मर्रा की पवित्रता पर जोर देता है स्वाध्याय, अतिथि सत्कार, पूर्वज स्मरण, लोक कल्याण ! कहीं कहीं यह भी लगता है कि अनुष्ठानों का अनुशासन ही यहां मन का अनुशासन बनता चला गया !
विवाह के प्रकार, गृहस्थधर्म और दांपत्य के कर्तव्यों पर ग्रंथ विस्तृत है कभी बहुत सूक्ष्म, कभी कठोर ! कुछ प्रावधान आज की संवैधानिक नैतिकता से टकराते महसूस होते हैं ; पढ़ते हुए स्वीकार करना आसान नहीं लगता ! फिर भी, परिवार केन्द्रित कर्तव्यों का विन्यास, संस्कारों की गरिमा और गृहस्थ आश्रम की प्रतिष्ठा इन सबमें परंपरा का मूल्य झलकता है !
वर्ण धर्म पर यह ग्रंथ सबसे ज्यादा चर्चा और आलोचना का केंद्र रहा है ! जन्म, कर्म, शिक्षा और आचरण इनके बीच संबंध कैसे तय हों यहीं सबसे ज्यादा मतभेद उठते हैं ! मुझे लगता है, इस हिस्से को आज भी विवादित मान सकते हैं, क्योंकि सामाजिक बराबरी और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रश्न यहां सबसे तीखा दिखता है !
राजा के गुण, न्याय का तरीका, कर और सुरक्षा मनुस्मृति का यह भाग प्राचीन राज्य व्यवस्था का आइना है ! साक्ष्य, शपथ, दंड और विवाद निराकरण की रूपरेखाएं बताती हैं कि समाज को नियम चाहिए और नियमों को नैतिकता ! क्या पुराने विधि विचार आज की न्याय प्रणाली में भी कहीं न कहीं सांस लेते मिलते हैं ? भारतीय समाज की गली कूचों में भी इसके असर की झलक कभी कभी दिख जाती है !
भोजन, शुचिता और दैनिक व्यवहार पर बारीक निर्देश किसे खाना, कब खाना, कैसे खाना ये सब आधुनिक पाठक को अनगिन सवालों में डाल सकते हैं ! लेकिन धर्मशास्त्रीय सांचे में यह सब केवल भोजन का मामला नहीं, मन और समाज की आंतरिक स्वच्छता का प्रतीक भी है ! जैसे घर की रसोई समाज की आत्मा का स्वाद तय करती हो !
पाप, दंड और प्रायश्चित्त इनके जरिए मनुस्मृति एक नैतिक गणित बनाती है, जहां भूल को सुधारा जा सकता है और संतुलन लौटाया जा सकता है ! अंततः कर्म फल और मोक्ष का बोध धर्मशास्त्र का आध्यात्मिक क्षितिज यहां दिखाई देता है ! नियमों की कठोरता के पीछे मुक्ति की कोमल आकांक्षा एक विचित्र, पर सचेत संतुलन !
मनुस्मृति की पांडुलिपियां अनेक हैं और पाठांतर भी ! इसी वजह से श्लोक संख्या और क्रम में भिन्नताएं मिलती हैं यह बातें अक्सर विद्वानों के बहस मुबाहिसे को जन्म देती हैं ! कुल्लूक भट्ट की टीका, जॉर्ज बुहलर जैसे संपादकों के आलोचनात्मक कार्य और पी. वी. काणे जैसे विद्वानों के शोध ने पाठ समझ को गहराई दी है सहमति और असहमति, दोनों के साथ !
औपनिवेशिक युग में मनुस्मृति को ” हिंदू लॉ ” समझने बताने का प्रमुख स्रोत बना दिया गया अनुवाद, टीकाएं, और उसके बाद जन धारणा ! विलियम जोन्स के अनुवाद से इसका यूरोपीय परिचय बढ़ा और हिंदू कानून की ‘ मानक ‘ छवि गढ़ी जाने लगी ! सवाल उठता है क्या किसी एक ग्रंथ को पूरे समाज की नियति बना देना खुद में एक ऐतिहासिक सरलकरण नहीं था ?
आधुनिक समय में जाति और स्त्री संबंधी प्रावधानों पर तीखी आलोचनाएं हुईं सामाजिक आंदोलनों ने इसे ललकारा, जला भी दिया ; बहसें भी लंबी चलीं ! दूसरी ओर, परंपरागत व्याख्याएं मनुस्मृति में सदाचार, अहिंसा और लोक कल्याण का आग्रह पहचानती हैं ! क्या यह संभव है कि एक ही ग्रंथ में समाज न्याय के प्रश्न और समाज व्यवस्था की आकांक्षा साथ साथ दर्ज हों ? जटिल है, पर सच भी !
कहावतें, मुहावरे, रस्म रिवाज भारतीय समाज के रंग ढंग में कई पुरानी परतें हैं, जिनके सूत्र धर्मशास्त्रों में मिलते हैं ! गली कूचों की बोली में, त्यौहारों की थाली में, परिवारों की मर्यादा में कहीं न कहीं एक पुरानी आवाज़ अब भी सुनाई देती है ! कभी तीखी, कभी धीमी ! बदलते समय के साथ सुर भी बदले हैं, पर धुन अभी जाती नहीं !
सच कहें तो कुछ बातें पढ़ते हुए स्वीकार करना आसान नहीं लगता ! फिर भी परंपरा का मूल्य, समाज को नियम देने की कोशिश, और जीवन को किसी नैतिक धुरी पर टिकाने की चाह ये सब इस ग्रंथ के भीतर धड़कते हैं ! बहस जरूरी है, पर सुनना भी ताकि ठीक ठीक समझ बन सके कि किसे बचाना है और किसे बदलना !
संवैधानिक मूल्यों, समानता, स्वतंत्रता, न्याय के आलोक में मनुस्मृति को पढ़ना एक जरूरी पुनर्पाठ है ! जो बातें समय की परीक्षा में खरी नहीं उतरीं, उन्हें बदला भी गया, छोड़ा भी गया ! पर जो नैतिक आग्रह कालातीत हैं सदाचार, सत्यनिष्ठा, लोक कल्याण वे आज भी दिशा दिखा सकते हैं ! क्या पुराने ग्रंथों का यही सबसे बड़ा काम नहीं समय से संवाद ?
क्लासिकी शोध यह बताता है कि मनुस्मृति अकेली नहीं थी याज्ञवल्क्य, गौतम, वशिष्ठ, विष्णु जैसी अन्य स्मृतियां भी प्रचलन में थीं ! मतलब यह कि समाज केवल एक किताब से नहीं चलता ; बहुलता भी एक सच्चाई है ! बुहलर, काणे और अन्य विद्वानों ने इसी बहुलता को पढ़कर मनुस्मृति की जगह तय करने की कोशिश की कभी समर्थन में, कभी आलोचना में, पर लगातार संवाद में !
किसी भी प्राचीन ग्रंथ को शाब्दिक अंतिम सत्य मान लेना खतरनाक सरलता है, और उसे पूरी तरह खारिज कर देना भी उतना ही आसान रास्ता ! बेहतर यही कि अर्थ परतों को खोला जाए इतिहास, भाषा, समाज और राजनीति सबको साथ रखकर ! तब दिखता है कि मनुस्मृति नियम भी है, बहस भी, और दर्पण भी हर बार पढ़ने पर थोड़ा थोड़ा अलग चेहरा दिखाने वाला !
कभी लगता है यह किताब हमारे भीतर छिपे अनुशासन प्रेम को आवाज़ देती है ! कभी लगता है समानता की बेचैनी को चुनौती भी ! दोनों सच हैं ! दोनों साथ हैं ! और यहीं से संवाद शुरू होता है !
मनुस्मृति को एक ही वाक्य में समेटना संभव नहीं यह परंपरा का स्मृति चिह्न है और आधुनिकता का प्रश्नपत्र भी ! भारतीय समाज की बनावट, उसके नियम, उसकी दुविधाएं सब यहां किसी न किसी रूप में दर्ज मिलते हैं ! शायद असली बात यही है कि ग्रंथ को पढ़ते हुए समाज को पढ़ा जाए, और समाज को समझते हुए ग्रंथ की सीमाएं भी ! तो फिर, क्या एक प्राचीन आचार संहिता जिसकी जड़ें इतिहास में हैं आज भी हमारे फैसलों की शाखों में नए पत्ते उगा सकती है ?