रामायण केवल कथा नहीं ! यह जीवन का दर्पण है ! कभी यह आस्था की लौ बनकर जलती है कभी नैतिक उलझनों का आईना बन जाती है और कभी बस एक मधुर स्मृति, दादी की आवाज़ में मानसपाठ, या किसी शाम मंदिर के आँगन में गूँजते चौपाइयों की धुन ! जब हम इस कथानक को पढ़ते हैं तो सहज ही लगता है कि यह केवल प्राचीन नहीं ; यह घर घर की, मन मन की कहानी है ! मैं जब सोचता हूँ कि एक महाकाव्य कैसे सदियों तक जीवित रहता है तो अक्सर उत्तर मिलता है क्योंकि वह हमारे भीतर चलता रहता है !
कथा बहती है ! कहीं धीमी, कहीं प्रबल ! जन्म होता है राम का आशाओं से भरे एक राज्य में ! विश्वामित्र के साथ पहला वनगमन, ताड़का का आतंक, और फिर मिथिला में शिवधनुष का भंग ! वह दृश्य आज भी मन में रंग भर देता है धनुष टूटता है, और एक साथ जैसे लोकगीत गूँज उठता है, ” जय जय रघुवीर समरथ ! “
फिर अयोध्या में द्वन्द्व ! राजतिलक की तैयारी और अचानक वनवास ! एक निर्णायक क्षण ! पिता के वचन, राज्य के नियम, और व्यक्तिगत सुख किसे चुनना ? राम चुनते हैं मर्यादा ! सीता और लक्ष्मण उनके साथ चल पड़ते हैं ! तीन लोगों का वह वनपथ, सिर्फ़ यात्रा नहीं, जीवन की तपी हुई राह है जहाँ शबरी के बेर भी मिलते हैं और जटायु का लहू भी !
जब स्वर्णमृग छलता है और सीता हर ली जाती हैं, तो कहानी हमारे भीतर कुछ खींच लेती है ! शोक, क्रोध, संकल्प ! यहीं से किष्किन्धा का अध्याय खुलता है सुग्रीव, वालि, और मित्रता की कसौटी ! राम एक अन्यायग्रस्त मित्र का साथ देते हैं ; बदले में उन्हें मिलता है पूरे जंगल का हृदय, वानर सेना, जाम्बवन्त की सूझ, और हनुमान का अदम्य विश्वास ! सुंदरकाण्ड पढ़ते हुए अक्सर लगता है, जैसे आत्मा में एक नन्हा दीपक जल उठता है ! हनुमान उड़ते हैं ! सचमुच ! संदेहों के समुद्र को लाँघते हुए !
लंका में युद्ध है पर केवल शस्त्रों का नहीं ! यह धर्म और अहंकार का संघर्ष है, विवेक और वासना की भिड़ंत ! कोई संजीवनी लेकर आता है, कोई अपने अहं में टूट जाता है ! अंततः रावण गिरता है ! विजय सीधी सादी लगती है पर उसके पीछे कितनी कीमतें हैं आग, आँसू, और राजधर्म के प्रश्न ! अयोध्या लौटना आसान है, रामराज्य चलाना कठिन ! उत्तरकाण्ड इसी कठिनाई का साक्ष्य है लोकमत भला है, पर कठोर भी ! यहीं कहानी हमारे समय से संवाद करती है !
गाँव की रामलीला में जब हनुमान का चरित्र मंच पर आता था तो हर बच्चा उद्गीत करता था ! ढोलक तेज़ हो जाती, और हममें से कई अनजाने ही खड़े हो जाते जैसे पराक्रम हमारे भीतर उतर आया हो ! दीपावली की रात, लक्ष्मी पूजन के बाद, किसी घर से मानस की चौपाइयाँ हवा में तैरती थीं, ” श्री राम जय राम जय जय राम ! ” आज भी छोटे कस्बों में यह दृश्य मिलता है ! कोई बूढ़ी अम्मा धीमी आवाज़ में पढ़ती हैं, बच्चे आरती की थाली थामे झूमते हैं, और पिताजी दूर खड़े मुस्कुरा देते हैं कथा परिवार बनाती है, पीढ़ियाँ जोड़ती है ! यह स्पर्श है ! बहुत व्यक्तिगत, बहुत अपना !
राम मर्यादा हैं, पर वे पथरीले नहीं ! उनके निर्णयों में विवेक का श्रम दिखता है कभी मौन, कभी दृढ़ ! उनके साथ चलती हैं सीता शांत, पर भीतर से अडिग ! रावण एक ही साथ विद्वान भी है और विनाशी भी ! लक्ष्मण का क्रोध भी है और करुणा भी ! भरत का त्याग, हनुमान का समर्पण ये पात्र केवल नाम नहीं, हमारे भीतर के स्वरों की तरह हैं ! जैसे किसी दिन हम भरत की तरह राज तिलक ठुकरा कर पादुकाएँ सिंहासन पर रख दें तो किसी और दिन हनुमान की तरह कहें ” जो आदेश ! ” थोड़ी देर को सही, पर हम ऐसा सोचते हैं ! यही तो कहानी की ताकत है !
सीता का साहस अक्सर अनदेखा रह जाता है ! उन्होंने रावण की राजसी कैद में भी अस्वीकार के स्वातंत्र्य को चुना ! यह छोटा नहीं ! यह प्रखर आत्मविश्वास है ! आज जब हम स्त्री स्वर की चर्चा करते हैं तो सीता का यह मौन अस्वीकार और अंत में धरती प्रवेश का निर्णय मुझे बार बार रुककर सोचने को कहता है सम्मान क्या है ? प्रमाण कौन तय करेगा ? और किसके लिए ?
कुछ दृश्य हैं जो मन में स्थायी रहते हैं ! शबरी के बेर सादगी और समता का स्वाद ! जटायु एक वृद्ध पक्षी, जो अन्याय के सामने खड़ा होता है ; वह पराजित होता है पर गिरता नहीं, अमर हो जाता है ! हनुमान की छलाँग वह केवल भौतिक उड़ान नहीं, आत्म संशय से आस्था की उड़ान है ! समुद्र पर पत्थरों के सेतु सामूहिक श्रम का कवित्त ! और फिर वह क्षण, जब राम रावण के सामने खड़े हैं तीर तना है ; पर भीतर कहीं एक विषाद भी है ! विजेता भी एक मनुष्य है ! उसे पता है युद्ध में केवल शत्रु नहीं गिरते, कुछ भीतर का भी टूटता है !
रामायण का केन्द्रीय शब्द धर्म ! पर धर्म यहाँ नियमों का पत्थर नहीं संदर्भ का जीवंत विवेक है ! पिता का वचन, प्रजा का मत, पत्नी का सम्मान, शत्रु का भी मान इन सबके बीच राम का निर्णय संतुलन हमें चुनौती देता है ! आज जब हम इस पर विचार करते हैं तो प्रश्न उठते हैं क्या राजधर्म निजी जीवन से ऊपर है ? क्या लोकमत की शंका किसी की गरिमा पर भारी पड़ सकती है ? यह प्रश्न मुझे गहराई से सोचने पर मजबूर करता है क्योंकि आधुनिक लोकतंत्र में भी ” न्याय होते दिखना ” उतना ही महत्वपूर्ण माना जाता है जितना ” न्याय होना ! “
विभीषण की शरणागति एक और प्रकाश किरण है ! एक भाई राज्य छोड़कर सच का साथ देता है ! जोखिम बड़ा है ! पर वह आता है ! और राम कहते हैं जिसने शरण ली, वह मेरा है ! कैसी सरल, पर कितनी बृहत बात ! नेतृत्व का हृदय यहीं दिखाई देता है सुरक्षा और विश्वास का आश्रय देने की क्षमता !
रामायण किताब में नहीं रुकती ! वह मेले में चलती है, चौपाल पर गाई जाती है, और पर्वों में खिलखिलाती है ! दशहरा की शाम जब रावण का पुतला जलता है, छोटे छोटे बच्चे दूर से ” जय श्री राम ” पुकारते हैं ! दीपावली पर आँगनों में दीये सजे होते हैं और कई जगह मानस गान अब भी होता है आज भी गाँव गाँव में लोग इसे गाकर सुनाते हैं ! उत्तर भारत की रामलीला, दक्षिण के मंदिर नाट्य, कर्नाटक का यक्षगान, तमिलनाडु का भागवत मेला हर रंगमंच पर कहानी नया रूप लेती है ! और कितने गीत ! कहीं ” भए प्रगट कृपाला ” गूँजता है तो कहीं लोकधुनों में सीता हरण का करुण राग ! कला, धर्म और लोकजीवन यहाँ एक दूसरे में घुल मिल जाते हैं जैसे खीर में इलायची !
चित्रों की दुनिया में भी यही है ! किसी मिनिएचर पेंटिंग में अशोक वाटिका के वृक्ष, कहीं दीवार चित्र में सेतु नील नल पत्थर रखते जा रहे हैं ! मैं जब ऐसे चित्र देखता हूँ, तो लगता है यह केवल कलाकार का कौशल नहीं ; यह सामूहिक स्मृति का रंग है !
कथा एक है, पर स्वर अनेक ! तमिल के कम्बन ने वीर रस से इसे दीप्तिमान किया ; अवधी के तुलसी ने भक्ति की मधुरता घोली ; बंगाल में कृत्तिवास ने लोक रस का झरना बहाया ! मलयालम के अध्यात्म रामायण में वेदान्त की छाया है ! जैन और बौद्ध परम्पराओं ने अहिंसा और उपदेश की भाषा में इसे नए अर्थ दिए ! और जब यह कहानी समंदर पार पहुँची थाईलैंड का रामकियेन, इंडोनेशिया का काकविन रामायण, कंबोडिया का रेअम् केर, तो दरबारी नृत्यों, मुखौटों और स्थानीय मिथकों से सजकर लौटी ! वही राम, पर अलग लय ! वही सीता, पर एक नया नृत्य हावभाव ! अलग अलग सभ्यताएँ, पर एक साझा धड़कन !
प्रवासी संसार में भी यह काव्य घर बनाए बैठा है ! कैरेबियन, फ़िजी, मॉरीशस जहाँ जहाँ भारतीय गए, वहाँ रामायण की चौपाइयाँ उनके साथ चलीं ! रविवार की शामें, मंडली का पाठ, और बीच बीच में किसी बच्चे का प्रश्न ” हनुमान इतने बड़े पहाड़ को सच में उठा पाए थे ? “, कथा मुस्कुरा देती है, और आगे बढ़ जाती है !
परम्परा के साथ आलोचना का रिश्ता वाद विवाद का नहीं, संवाद का होना चाहिए ! रामायण पर आज अनेक दृष्टियाँ हैं और यह अच्छा है ! नारीवादी पाठ हमें शूर्पणखा के प्रसंग पर ठहरने को कहता है ! क्या उसके साथ कठोरता अधिक हो गई ? सीता की अग्नि परीक्षा क्या यह शुचिता का प्रतीक है या लोकमत के दबाव का ? आज जब हम इस पर विचार करते हैं तो स्पष्ट उत्तर शायद नहीं मिलता ! पर प्रश्न महत्वपूर्ण हैं ! वे हमें निष्कर्ष नहीं संवेदनशीलता देते हैं ! और संवेदनशीलता ही समाज को मानवीय बनाती है !
उत्तरकाण्ड के कुछ प्रसंग जैसे शम्बूक समाज, श्रम और न्याय की परतें खोलते हैं ! यह असुविधाजनक पाठ है पर आवश्यक ! मैं इसे पढ़ते हुए सोचता हूँ धर्म की रक्षा का अर्थ क्या है, और किसकी सुरक्षा सबसे पहले तय होती है ? यही प्रश्न आधुनिक न्याय व्यवस्थाओं के केंद्र में भी हैं !
राम का नेतृत्व युद्ध रणनीति से आगे जाता है ! वे गठबंधन बनाना जानते हैं सुग्रीव के साथ संधि, विभीषण का स्वागत, जाम्बवन्त की बुद्धि का सम्मान ! टीम वही सफल होती है जहाँ अहंकार कम और भरोसा अधिक हो ! सुंदरकाण्ड की भाँति, किसी संगठन में भी वह एक व्यक्ति एक हनुमान बहुत कुछ बदल देता है ! पर वह अकेला नहीं बदलता ; उसके पीछे जाम्बवन्त का ” तुम कर सकते हो ” भी होता है ! यह छोटा वाक्य संगठन का सेतु बन जाता है ! जीवन में भी ! हम सब खोजते हैं अपना जाम्बवन्त जो हमें हमारी ही शक्ति का स्मरण करा दे !
सेतु बंधन एक प्रतीक से अधिक है ! यह सामूहिक पुरुषार्थ का साक्ष्य है ! जब असंभव लगता है तब लोग मिलकर पत्थर ढोते हैं कुछ डूबते, कुछ तैरते ! और एक सुबह आपको लगता है पार जाने का रास्ता बन गया है ! कितनी बार जीवन में ऐसा नहीं होता ?
वाल्मीकि की भाषा में चित्र हैं वन की हरियाली, समुद्र की गहराई, युद्ध की गड़गड़ाहट ! तुलसी की भाषा में संगीत है लय, तुक, और भाव का प्रसाद ! ” सो आव सरोज सुमन सम, जाके हिय हहरै ! ” ऐसे पद पढ़कर मन बस थम जाता है ! कथा धीरे धीरे हमारे भीतर सुर बनकर उतरती है ! आप चाहें तो इसे अकेले पढ़ें, आपको लगेगा किसी ने कंधे पर हाथ रखा है ! आप चाहें तो संगति में गाएँ, लगेगा समाज एक स्वर में बोल रहा है ! यही तो काव्य की प्रतिष्ठा है वह निजी भी है और सामूहिक भी !
सीता का चरित्र धैर्य का नहीं, केवल धैर्य का नहीं ; निर्णय का भी है ! रावण के सामने उनका ” न ” कहना, और अंत में धरती प्रवेश दोनों क्षण गहरे हैं ! आज जब हम महिलाओं के अधिकार, गरिमा और स्वायत्तता की बात करते हैं तो सीता हमें याद दिलाती हैं सम्मान की परिभाषाएँ बाहर से थोपी नहीं जा सकतीं ! वे भीतर से आकार लेती हैं ! मुझे यह विचार धड़कता हुआ लगता है क्या कभी कभी मौन भी प्रतिरोध होता है ? क्या आत्म सम्मान के लिए संसार की स्वीकृति आवश्यक है ? इन प्रश्नों के उत्तर आसान नहीं ! पर प्रश्न रखना ही पहली रोशनी है !
रामराज्य एक भूगोल नहीं, एक वादा है ! शासक और प्रजा, दोनों के बीच का नैतिक अनुबंध ! न्याय, उत्तरदायित्व, बराबरी ये शब्द घोषणाओं में नहीं, व्यवस्था की धड़कन में सुनाई देने चाहिए ! मैं जब ” रामराज्य ” सुनता हूँ तो नारे नहीं, दृश्य उभरते हैं दरबार जहाँ कमजोर बिना डरे बोले, सड़क जहाँ स्त्री निशंक चले, और घर जहाँ कोई भूखा न सोए ! यह आसान नहीं ! पर आदर्श इसलिए होते हैं कि वे हमारी नीति को दिशा दें, हमारी थकान को अर्थ दें !
टेक्नोलॉजी, गति और भीड़ के समय में भी मनुष्यता का केंद्र वही पुराना है विश्वास, करुणा, न्याय ! राम का धैर्य हमें असहमतियों में संयम सिखाता है ! लक्ष्मण का जज़्बा हमें कर्तव्य निभाना सिखाता है ! हनुमान हमें बतलाते हैं बल का सर्वोच्च उपयोग सेवा है ! भरत का त्याग हमें पद लोभ से परे देखने को कहता है ! और सीता वे हमें याद दिलाती हैं कि गरिमा, अंतिम विश्रांति है ! आप इसे नेतृत्व प्रशिक्षण कह लें, नागरिकता का पाठ, या परिवार की नैतिकता सबमें रामायण एक छोटी रोशनी पकड़ाती है ! छोटी, पर सच्ची !
हम रामायण बार बार क्यों पढ़ते हैं ? शायद इसलिए कि हर बार हम किसी नए मोड़ पर खड़े होते हैं, और कहानी हमें नई दिशा दिखा देती है ! कभी हम राम की तरह निर्णय का भार ढो रहे होते हैं कभी सीता की तरह सम्मान की लड़ाई लड़ रहे होते हैं कभी हनुमान की तरह आत्म संशय से जूझ रहे होते हैं ! और फिर कहीं से कोई आवाज़ आती है ” तुम कर सकते हो ! ” हम मुस्कुरा देते हैं ! चल देते हैं ! कथा साथ चलती है ! जीवन के चौराहों पर, घर की दीवारों पर, त्योहारों की रोशनी में, और मन की खामोशी में ! शायद यही कारण है कि यह महाग्रंथ समय से बड़ा हो गया है वह बस जीता है, और हमें जीना सिखाता है !