यजुर्वेद, सनातन धर्म के चार वेदों में से एक है और वैदिक साहित्य का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह वेद मुख्य रूप से यज्ञों और कर्मकांडों से संबंधित है।
यजुर्वेद का अर्थ:
“यजुस” शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ है “यज्ञ” या “अनुष्ठान” से संबंधित मंत्र।
यजुर्वेद की संरचना:
यजुर्वेद को दो मुख्य शाखाओं में विभाजित किया गया है:
शुक्ल यजुर्वेद (वाजसनेयी संहिता):
इसे “श्वेत यजुर्वेद” भी कहा जाता है।
इसमें मंत्र और गद्य दोनों शामिल हैं, लेकिन यह मुख्य रूप से मंत्रों पर केंद्रित है।
इसकी उत्पत्ति महर्षि याज्ञवल्क्य से मानी जाती है।
वाजसनेयी संहिता इसकी प्रमुख संहिता है, जो 40 अध्यायों में विभाजित है।
कृष्ण यजुर्वेद:
इसे “काला यजुर्वेद” भी कहते हैं।
इसमें मंत्र और गद्य एक साथ मिश्रित रूप में प्रस्तुत किए गए हैं।
यह अधिक जटिल और प्राचीन माना जाता है।
कृष्ण यजुर्वेद की चार प्रमुख शाखाएँ हैं:
तैत्तिरीय संहिता
मैत्रायणी संहिता
काठक संहिता
कपिष्ठल संहिता
यजुर्वेद का विषय और महत्व:
यजुर्वेद मुख्य रूप से यज्ञों और कर्मकांडों पर केंद्रित है। इसमें मंत्र, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् शामिल हैं।
इसका उद्देश्य यज्ञ के माध्यम से देवताओं को प्रसन्न करना और प्रकृति के साथ मानव का सामंजस्य स्थापित करना है।
इसमें अग्नि, इंद्र, वरुण, सोम जैसे देवताओं की स्तुति के मंत्र शामिल हैं।
यह वैदिक काल की सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक व्यवस्था को समझने का महत्वपूर्ण स्रोत है।
इसके मंत्र आज भी हिंदू अनुष्ठानों, जैसे विवाह, श्राद्ध और अन्य संस्कारों में प्रयोग किए जाते हैं।
इसके उपनिषद् आत्मा, ब्रह्म और मोक्ष जैसे गहन दार्शनिक विचारों को प्रस्तुत करते हैं।
यजुर्वेद का आधुनिक संदर्भ:
आज भी यजुर्वेद का अध्ययन वैदिक विद्वानों और पंडितों द्वारा किया जाता है।
इसके मंत्रों का प्रयोग धार्मिक अनुष्ठानों में होता है।
यह भारतीय दर्शन और अध्यात्म के शोधकर्ताओं के लिए भी एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है।
जय सनातन धर्म! जय जगत