सामवेद को पढ़ते हुए बार बार लगता है यह सिर्फ यज्ञ विधियों का ग्रंथ नहीं, यह तो संगीत, ध्वनि और आध्यात्मिक अनुभूति का जीवित संगम है ! यहां शब्द केवल बोले नहीं जाते, वे गाए जाते हैं धुन बनते हैं, लय बनते हैं ; और गाए जाने पर कुछ अलग सा, सच में अलग सा घटित होता है !
चार वेदों में सामवेद वह है जो मंत्रों को ‘ साम ‘, यानी स्वर विन्यास के साथ गीत में ढालता है ! वही ऋचा, वही देव स्तुति ; पर जब धुन जुड़ती है तो अर्थ जैसे शरीर छोड़कर आवाज़ बन जाता है ! कोई कह दे तो गलत न होगा यह वेद सुनने के लिए बना है देखने के लिए नहीं ! और शायद इसी कारण इसकी उपस्थिति अलग है अपनी तरह की है !
‘ साम ‘ सीधा सा अर्थ स्वरों में बुना मंत्र ! उदात्त, अनुदात्त, स्वरित जैसी सूक्ष्म स्वरीय भंगिमाएँ उच्चारण को लय देती हैं ; कहीं कहीं ‘ स्तोभ ‘ छोटी ध्वनियाँ भी जोड़ी जाती हैं ताकि धुन सांस के साथ चलती रहे, बहती रहे ! सुनने वाले को लगता है, शब्द किसी अदृश्य तरंग पर सवार होकर आते हैं और मन में, सीधे मन में उतर जाते हैं ! साम का उद्देश्य केवल शास्त्र नहीं रस है ; केवल नियम नहीं अनुभव है !
सामवेद की परंपरागत बनावट संहिता, ब्राह्मण और उपनिषद तीन परतों में समझी जाती है ! संहिता में वे मंत्र संग्रह हैं जिनकी धुन तय है ; ब्राह्मण ग्रंथ विधि और संकेत समझाते हैं ; उपनिषद दार्शनिक आकाश खोलते हैं ! संहिता के भीतर आर्चिक और गान एक तरह का द्वार और आंगन, जहां मंत्र और उसका राग रूप साथ साथ चलते हैं ! एक ही मंत्र अलग समय, अलग प्रसंग में दूसरी धुन, दूसरा रंग ले सकता है यही इसकी सुंदरता है यही इसकी कला !
सामवेद के अधिकांश मंत्र ऋग्वेद से लिए गए हैं यह तो जाना सुना तथ्य है ! पर फर्क यह है कि यहां ऋचा ‘ गान ‘ बनती है ; अर्थ की धारा, ध्वनि की नदी में बदलती है ! कह सकते हैं ऋग्वेद और सामवेद का संबंध अर्थ और राग का है ; वाणी और स्वर का है ! जब ऋचा स्वर पाती है तो उसका असर सिर से उतरकर हृदय में, और हृदय से उतरकर अनुभव में ठहरता है !
वैदिक यज्ञों विशेषकर सोम यज्ञ में सामवेद का केंद्र स्थल बतलाया गया है ! उद्गाता विशिष्ट पुरोहित समय, क्रम और लय का ध्यान रखते हुए सामगान का प्रवाह रचते हैं ! सब कुछ इतना सूक्ष्म, इतना संतुलित कि पूरा अनुष्ठान एक जीवंत संगीत नाटक लगता है कला भी, साधना भी ! उद्देश्य देव आह्वान है पर साधन ध्वनि है ; और ध्वनि से बना वह वातावरण, वह आभा यही तो साम का जादू है !
प्रातः काल है ! वैदिक विद्यालय के खुले आंगन में शिष्य गोलाकार बैठे हैं ! गुरुवर हल्के से संकेत करते हैं और स्वर उठते हैं ! पहले जैसे हवा टटोली जाती है ; फिर सुर टिकते हैं, लय जुड़ती है, फिर सब साथ, सच में साथ हो जाता है ! किसी शिष्य का स्वर थोड़ा डगमगा जाता है पर समूह उसे पकड़ लेता है ! कुछ ही क्षणों में लगता है, समय रुक सा गया ; मंत्र सुनाई नहीं देते, वातावरण बन जाते हैं ! ऐसे में सामवेद किताब नहीं रहता एक सांस लेती परंपरा बनकर सामने खड़ा हो जाता है !
कौथुम, राणायनीय और जैमिनीय इन प्रमुख शाखाओं का उल्लेख अक्सर आता है ! शाखा के अनुसार धुनों, विरामों और स्वर चाल में हल्के पर अर्थपूर्ण भेद दिखते हैं जैसे एक ही राग अलग अलग घरानों में अलग सा रंग ले ले ! विविधता और अनुशासन साथ साथ यही इस परंपरा की जान है ; यही इसकी पहचान है !
भारतीय शास्त्रीय संगीत की आरंभिक प्रेरणाओं को सामवेद से जोड़कर देखना स्वाभाविक है ! धुन, आरोह अवरोह, आलाप, विराम ये केवल तकनीक नहीं उस चेतना परंपरा के सूत्र हैं जहां ध्वनि साधना बनती है ! रागदारी के भीतर कहीं, बहुत अंदर, सामगान की एक धीमी सी गूंज कानों को नहीं, मन को सुनाई देती है ! गंधर्ववेद की बात हो या नाट्यशास्त्र का समन्वित सौंदर्य सबमें साम की छाप हल्के हल्के, पर ठहरकर मिलती है !
छांदोग्य और केन सामवेद से संबद्ध ये दो उपनिषद दर्शन के बड़े सिरों में आते हैं ! छांदोग्य में वाणी, प्राण और ब्रह्म का संबंध ऐसी सूक्ष्मता से जुड़ता है कि ‘ साम ‘ केवल गीत नहीं चेतना का क्रम लगता है ! केन का प्रश्नाकुल स्वर याद दिलाता है ज्ञान तक पहुंचने का रास्ता सुनने से होकर भी जाता है ; श्रुति का द्वार खोलना पड़ता है ! यहाँ स्वर और मौन, दोनों अर्थ बन जाते हैं !
गान विद्या में छोटे छोटे करघे हैं : कहीं एक ध्वनि बढ़ाई जाती है, कहीं विराम बढ़ता है ; कहीं एक अक्षर को लंबा खींचकर श्वास का संतुलन रखा जाता है ! ये बारीकियाँ श्रोता के लिए स्पर्श भर हैं ; गायक के लिए साधना ! इसलिए कहा भी जाता है सामवेद को ‘ गाया ‘ जाता है, ‘ बोला ‘ नहीं जाता ! ध्वनि के साथ अर्थ की जो परछाईं उभरती है, वह पाठ से नहीं, गान से आती है !
अग्नि, इन्द्र, सोम और सूर्य ये बार बार आते हैं ; पर केवल नाम नहीं हैं ! अग्नि वेदी का हृदय ; सोम ऊर्जा और तंद्रा का सांकेतिक रस ; सूर्य काल की ताल ; इन्द्र उत्साह, पराक्रम, संरक्षण ! धुन जब इन प्रतीकों को छू लेती है तो वे केवल विचार नहीं रहते अनुभव बन जाते हैं चित्र बनकर सामने आते हैं !
परंपरा श्रुति आधारित है सुनो, दोहराओ, फिर स्वर, मात्रा और विराम में शुद्धि लाओ ! पांडुलिपियाँ मार्ग दिखाती हैं पर स्वर की सच्चाई कंठ से उतरती है गुरु के कंठ से ! अक्सर घंटों एक ही पद की अलग अलग भंगिमाओं का अभ्यास ताकि स्वर केवल निकले नहीं टिके ; टिके और खिल उठे ! इसके बाद जो सहजता आती है वही सामगान की पहचान है पहचानते ही बनती है !
आज भी ध्वनि आधारित ध्यान, मंत्र जप, नाद योग सब एक सरल, पर गहरा विचार साझा करते हैं ध्वनि मन को आकार देती है ! मन का आकार आचरण में, श्वास में, दिनचर्या में उतरता है ! सामवेद इस विचार का प्राचीन, सुव्यवस्थित, थोड़ा सख्त सा, पर बहुत कोमल रूप है ! टेक्स्ट समझ न भी आए तो धुन अपना काम कर देती है धीरे धीरे, पर लगातार !
बहुत सी शाखाएँ समय के साथ खो गईं ; जो बचीं, उन्हें परंपरा और संस्थाओं ने थामे रखा ! आज ध्वनिमुद्रण, आर्काइव और डिजिटल संरक्षण ये सब मदद करते हैं ! पर असली संरक्षण वहीं है जहां दो कंठ मिलकर स्वर रचते हैं ; जहां एक विराम सिखाया जाता है आहिस्ता आहिस्ता, और शिष्य उसी विराम में अपनी सांस टिकाना सीखता है ! परंपरा ‘ बचती ‘ ही नहीं ; हर पीढ़ी में ‘ बनती ‘ भी है यहीं इसकी सचाई है !
बड़े यज्ञों में उद्गाता के स्वर से पूरा वातावरण बदल जाता था ऐसा कहा जाता रहा है ! धुएँ की गंध, वेदी की गरमी, और साम की उठती बैठती धुन और फिर एक अनाम सी शांति ! कोई अनुभवी मुस्कुरा कर कहता यही तो साम है : आह्वान भी, संतुलन भी, समरसता भी ! मंत्र खत्म नहीं होता ; धीरे धीरे शांत हो जाता है जैसे झील में फेंका गया पत्थर अपनी आखिरी लहर छोड़कर थम गया हो !
कई श्रोता कहते सुने गए हैं ” सामगान सुनकर लगता है हाँ, यही असली साधना है ! सच कहा जाए तो इसे समझाना मुश्किल है इसे बस सुनना पड़ता है ! ” और सच में यही बात है कभी समझाना नहीं बनता, सुनना बनता है ! सुनना और फिर थोड़ा सा, बहुत थोड़ा सा मौन !
सामवेद संगीत को अनुशासन देता है और अनुशासन को कला का आनंद ! नियम अगर बहुत कठोर हों तो मन थक जाए ; बहुत ढीले हों तो अर्थ बिखर जाए ! साम की रीत बीच की राह पकड़ती है जहां नियम हैं, पर खिलने की जगह भी है ; जहां गरिमा है, पर कोमलता भी साथ साथ है ! विरोधाभास नहीं, संतुलन और संतुलन ही तो कला का असली सौंदर्य है !
कई लोग सामवेद को ज्ञान, भक्ति और कर्म तीनों का संगम मानते हैं ! ज्ञान क्योंकि ध्वनि, वाणी और चेतना का रहस्य इसमें खुलता है ! भक्ति क्योंकि केंद्र भाव है, भाव और समर्पण ! कर्म क्योंकि यज्ञ विधि, क्रम और समय के साथ सब एक निश्चित कर्म रूप लेता है ! तीनों धारा एक दूसरे को काटती नहीं ; एक दूसरे में घुलती हैं एक-दूसरे को समृद्ध करती हैं !
कभी मान लिया जाता है सामवेद केवल संगीतज्ञों के लिए है ! पर अनुभूति का रास्ता तकनीक से छोटा होता है ; धुन का रास्ता सीधा होता है ! एक और भ्रम यह केवल पुरोहितों का विषय है ! सच यह है कि इसका सांस्कृतिक पक्ष बहुत व्यापक है लोक संगीत से लेकर ध्यान प्रक्रियाओं तक, रोज़मर्रा की ताल तक ! जो सुनना चाहे उसे अपने भीतर इसकी धीमी, पर स्थिर धड़कन मिल ही जाती है !
आज के तेज़, शोर भरे समय में सामवेद का अर्थ शायद इतना कि ध्वनि को जानना, सुनना सीखना, और सुनते सुनते भीतर की शांति पहचानना ! यह किसी रीति का आग्रह नहीं एक अभ्यास का निमंत्रण है ! जब ध्वनि का अनुशासन मन में उतरता है, तो विचार भी सधते हैं और दिन की रफ्तार में, चाहे थोड़ी ही सही, समरसता की जगह बनती है ! आखिर संगीत केवल सुनने की चीज़ नहीं, जीने की चीज़ भी है !
कभी एक ही बात दो शब्दों में कहना ठीक लगता है, ठीक और ज़रूरी ! सामगान केवल गान नहीं एक आंतरिक ताल भी है, ताल और ठहराव ! शायद इसी दोहराव में उसकी बात है, उसकी बात और उसकी बात का असर है !
अक्सर कहा जाता है वेद पढ़ो ! सामवेद शायद फुसफुसाकर कहता है पहले सुनो ! सुनते सुनते शब्द धुन बनेंगे, धुन अर्थ बनेगी, और अर्थ से आगे, अनुभव ! अनुभव के बाद शायद मौन ! जो रह जाए, वही साधना ! यह कोई अंतिम निष्कर्ष नहीं, बस एक संकेत ! इसीलिए सामवेद को केवल किताब की तरह नहीं, जीने की एक ध्वनि परंपरा की तरह देखना अच्छा लगता है ! और यह परंपरा आज भी जीवित है अगर सुनने की इच्छा, बस थोड़ी सी इच्छा बनी रहे !